________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 27 रूप से सामाचारी का पालन करने वाले की आलोचना करने मात्र से विशोधि हो जाती है। प्रतिक्रमण के अपराध स्थान हैं-समिति-गुप्ति आदि में विराधना। ग्रंथकार ने लगभग 76 गाथाओं (784-860) में समिति-गुप्ति की व्याख्या एवं उससे सम्बन्धित कथानकों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार आशातना, विनयभंग, सामाचारी तथा लघुस्वक मृषावाद आदि की भी रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है। लघुस्वक मृषावाद के 14 उदाहरण प्रायः सभी भाष्य ग्रंथों में मिलते हैं। संभव है ग्रंथकार ने वहीं से इनको उद्धृत किया है। ये उदाहरण दैनिक व्यवहार में बोली जाने वाली मृषा एवं मानव मनोविज्ञान को सूक्ष्मता से प्रकट करने वाले हैं। इसके अतिरिक्त अविधिपूर्वक खांसी, जम्भाई, अधोवात, ऊर्ध्ववात, असंक्लिष्ट कर्म, हास्य, विकथा आदि अपराध-स्थानों में भी प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त के प्रयोग का संकेत किया है। संभ्रम, भय, सहसा, अनाभोग, अज्ञान, अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, दुर्भाषण और दुश्चेष्टा-इन अपराध- स्थानों में तदुभय प्रायश्चित्त से विशोधि होती है। इसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्बन्धित अपराध- पदों में उपयुक्त साधु के भी तदुभय प्रायश्चित्त होता है। सुविहित श्रमण के यतनापूर्वक प्रयत्न करने पर भी कर्मोदय के कारण विराधना हो जाती है, उसके लिए तदुभय प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ____उपयोगपूर्वक आहार, उपधि आदि लाने पर भी बाद में ज्ञात हो कि वह आहार अशुद्ध था तो उसका विधिपूर्वक परिष्ठापन करना विवेक प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार कालातीत, अध्वातीत या सूर्योदय से पूर्व गृहीत आहार को विधिपूर्वक विवेक-परिष्ठापित करता हुआ श्रमण शुद्ध होता है। उसे फिर अन्य प्रायश्चित्त ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं रहती। .. पांचवा प्रायश्चित्त व्युत्सर्ग है। उसके अपराध-स्थान हैं-निष्कारण गमन-आगमन, विहार, श्रुत का उद्देशन, समुद्देशन, सावद्य स्वप्न, नदी-संतार, नौका-संतार, प्रतिक्रमण से सम्बन्धित कायोत्सर्ग आदि। इन सबमें कितने-कितने श्वासोच्छ्वास का व्युत्सर्ग होता है, इसका भी भाष्यकार ने उल्लेख कर दिया है। तप प्रायश्चित्त के अन्तर्गत आगाढ़योग, अनागाढ्योग तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार आदि के अतिचारों का विस्तार से वर्णन हुआ है। चारित्र आचार के अन्तर्गत उद्गम, उत्पादन, एषणा और परिभोगैषणा के दोषों का तथा उसमें प्राप्त उपवास, आयम्बिल आदि प्रायश्चित्तों का भी सूक्ष्म विवेचन हुआ है। यह सारा विस्तार आचार्य ने पिण्डनियुक्ति के आधार पर किया है, ऐसा संभव लगता है। ... तप प्रायश्चित्त के अन्तर्गत जीतकल्प सूत्र की गाथाओं का भी भाष्यकार ने विस्तार किया है, जैसे-धावन, डेवन, क्रीड़ा, कुहावना, गीत, सेण्टिका, पशु-पक्षियों की आवाज आदि करने पर तथा दिवाशयन, ल्हसुनग्रहण, पुस्तक-पंचक, तृण-पंचक, दूष्यपंचक, स्थापनाकुल आदि से सम्बन्धित दोषों में कौनसा तप प्रायश्चित्त मिलता है, इसका जीतव्यवहार के आधार पर वर्णन किया गया है। तप प्रायश्चित्त के