________________ 26 जीतकल्प सभाष्य उल्लेख किया है। तत्पश्चात् आलोचना सुनकर प्रायश्चित्त देने वाले साधु की अर्हताओं का वर्णन किया है। ग्रंथकार को प्रायश्चित्त देने के योग्य व्यवहारी की विशेषताओं का वर्णन करना था अतः प्रसंगवश गणिसम्पदा के चार-चार भेद तथा विनय-प्रतिपत्ति के चार भेदों का विस्तृत वर्णन किया है। इन 36 स्थानों में प्रतिष्ठित एवं परिनिष्ठित आचार्य ही प्रायश्चित्त देने के योग्य हो सकता है। इसी प्रसंग में भाष्यकार ने दर्प प्रतिसेवना के दश भेद तथा कल्प प्रतिसेवना के चौबीस भेदों की विस्तृत चर्चा की है क्योंकि इन प्रतिसेवनाओं के आधार पर ही आचार्य प्रायश्चित्त का निर्धारण करते हैं। दर्प प्रतिसेवना में प्रायश्चित्त अधिक आता है। कल्प प्रतिसेवना ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के निमित्त से होती है अतः प्रतिसेवना करता हुआ भी मुनि शुद्ध होता है। ____ बहुश्रुत आचार्य ने इस बात की विस्तार से चर्चा की है कि वर्तमान में प्रत्यक्षज्ञानी चतुर्दश पूर्वधर एवं अंतिम दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद होने पर भी प्रायश्चित्त देकर शोधि करने वाले आचार्यों का सद्भाव है। कल्प और व्यवहार को अर्थतः जानने वाला तथा उसकी नियुक्तियों का ज्ञाता प्रायश्चित्त देने के योग्य होता है। आचार्य ने प्रारम्भिक आठ प्रायश्चित्तों का विच्छेद मानने वालों को प्रायश्चित्त का भागी बताया है। इसी संदर्भ में आचार्य ने सापेक्ष और निरपेक्ष प्रायश्चित्त-दान को ऋण दाता और ऋणधारण करने वाले व्यक्ति की उपमा द्वारा विस्तार से समझाया है। भाष्यकार ने भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण और प्रायोपगमन-इन तीनों अनशनों का 23 द्वारों से विस्तृत वर्णन किया है। यह सारा प्रसंग जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने व्यवहारभाष्य से लिया है, ऐसा संभव लगता है। यद्यपि आगम व्यवहार के अन्तर्गत तीनों अनशनों की विस्तृत व्याख्या अप्रासंगिक सी लगती है, चूंकि उनको वर्तमान में निर्यापकों के अस्तित्व की सिद्धि करनी थी इसलिए उन्होंने प्रसंगवश तीनों अनशनों का भी विस्तृत वर्णन कर दिया है। प्रायोपगमन अनशन में चाणक्य, चिलातपुत्र, कालासवैश्य एवं अवंतीसुकुमाल आदि की दृढ़ता का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत व्यवहार की विस्तृत व्याख्या की गई है। चूंकि भाष्यकार का मूल लक्ष्य जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त का वर्णन करना था अतः उन्होंने जीतकल्प की विस्तृत व्याख्या की है। जीतव्यवहार के सम्बन्ध में भाष्यकार का स्पष्ट मंतव्य है कि जिस जीत से चारित्र की शुद्धि हो, उसी का व्यवहार करना चाहिए, जिससे चारित्र की शुद्धि न हो, उसका व्यवहार नहीं करना चाहिए। कोई जीतव्यवहार ऐसा भी हो सकता है, जिसका किसी एक ही संवेगपरायण, संयमी आचार्य ने अनुसरण किया हो, वैसा जीतव्यवहार भी अनुवर्तन करने योग्य है। प्रायश्चित्त की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए भाष्यकार ने दस प्रायश्चित्तों की सटीक परिभाषाएं प्रस्तुत की हैं। आलोचना के भेदों और उसके अपराध-स्थान का वर्णन करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि निरतिचार