________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श बहुश्रुत आचार्य ने लगभग 100 गाथाओं में केवलज्ञान और केवलदर्शन के युगपत् होने का विरोध करके उनके क्रमवाद को सिद्ध किया है। आचार्य ने आगम और हेतुवाद में आगम की सर्वोपरि महत्ता प्रतिष्ठित की है तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन को युगपद् मानने वाले सिद्धसेन दिवाकर की मान्यता का आगमिक युक्तियों से खण्डन किया है। 5. अनुयोगद्वारचूर्णि-अनुयोगद्वार में वर्णित अंगुल पद के आधार पर इस चूर्णि की रचना की थी लेकिन वर्तमान में इसके अंश जिनदासकृत अनुयोगद्वारचूर्णि एवं आचार्य हरिभद्र की अनुयोगद्वारटीका में उद्धृत इसके अतिरिक्त आवश्यक की हारिभद्रीय टीका में प्रकाशित ध्यान शतक को भी कुछ विद्वान् जिनभद्रगणि की रचना मानते हैं लेकिन इस संदर्भ में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। जीतकल्पसूत्र एवं उसका भाष्य जीतकल्प साध्वाचार से सम्बन्धित संक्षिप्त एवं महत्त्वपूर्ण कृति है। 103 गाथाओं में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने जीतव्यवहार से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का संक्षेप में वर्णन किया है। आचार्य ग्रंथ के प्रारम्भ में यह निर्देश करते हैं कि मोक्ष का कारण चारित्र है और चारित्र-शुद्धि का प्रायश्चित्त के साथ विशेष सम्बन्ध है। जीतकल्प में ग्रंथकार ने दस प्रायश्चित्त एवं उसके अपराध-स्थानों का संक्षिप्त वर्णन किया है। ग्रंथकार ने इस ग्रंथ में अल्प शब्दों में महान् अर्थ को भरने का प्रयत्न किया है। भगवती आराधना की टीका में उल्लेख मिलता है कि जीतकल्प, कल्पसूत्र आदि ग्रंथ निरतिचार रत्नत्रय को प्रकट करने वाले हैं। - जीतकल्प भाष्य में 26082 गाथाएं हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ग्रंथ के अंत में प्रकारान्तर से इसको संग्रह ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया है। मंगलाचरण के पश्चात् ग्रंथकार ने 'प्रवचन' शब्द का निरुक्त एवं उसकी व्याख्या से ग्रंथ का प्रारम्भ किया है। यद्यपि ग्रंथकार का मूल उद्देश्य जीतव्यवहार के आधार पर दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों का वर्णन करना था लेकिन उसकी व्याख्या से पूर्व अग्रिम चार व्यवहारों की व्याख्या करनी भी आवश्यक थी अतः प्रारम्भ में पांचों व्यवहारों का विस्तृत वर्णन है। आगम व्यवहार के अन्तर्गत उन्होंने इंद्रिय प्रत्यक्ष और नोइंद्रिय प्रत्यक्ष के संदर्भ में अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान-इन तीनों की विस्तृत व्याख्या की है। ज्ञान के प्रसंग में आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान का उल्लेख नहीं किया क्योंकि ग्रंथकार का मूल लक्ष्य आगम व्यवहार की व्याख्या करना था, न कि ज्ञान का वर्णन करना। ग्रंथकार ने आलोचना का महत्त्व एवं उसकी विधि का वर्णन करते हुए दोष सेवन के कारणों का 1. भआ 411 विटी पृ. 314 / 2. मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित जीतकल्प भाष्य में 2606 गाथाएं है। प्रतियों में गा. 1681 के बाद दो गाथाएं और हैं जो मूल सूत्र की व्याख्या करने वाली गाथाएं हैं अतः जीतकल्पभाष्य की 2608 गाथाएं होनी चाहिए।