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________________ अनुवाद-ज़ी-१०-१२ 363 लघुस्वक अदत्त है। अथवा वृक्ष आदि के नीचे बिना आज्ञा रहना भी लघुस्वक अदत्त' है। 903. मुखवस्त्र, पात्रकेशरिका, पात्रस्थापना, गोच्छक आदि उपकरणों पर साधु की मूर्छा होने पर लघुस्वक परिग्रह होता है। 904. अथवा शय्यातर के घर बैल, श्वान, काक आदि को आने से रोकना, बालक को गोद में लेना, रक्षा या ममत्व आदि करना लघुस्वक परिग्रह है। 905. ये द्वितीय, तृतीय और पंचम व्रत से सम्बन्धित लघुस्वक जानने चाहिए। नवीं गाथा समाप्त हो गई, अब मैं दसवीं गाथा कहूंगा। 10. अविधिपूर्वक खांसी, जम्भाई, छींक, वात-निसर्ग, असंक्लिष्ट कर्म तथा कंदर्प, हास्य, विकथा, कषाय और विषय में आसक्ति करने पर मिथ्याकार प्रतिक्रमण होता है। 906. मुंह के आगे हाथ या मुखवस्त्र लगाए बिना जम्भाई या छींक आदि लेना अविधि है। 907. 'खु' ऐसा शब्द करना छींक है। वात-निसर्ग दो प्रकार का होता है-ऊर्ध्ववायु निसर्ग तथा अधोवायु निसर्ग। 908. डकार आदि आना ऊर्ध्व वात-निसर्ग है। नीचे से वायु निकलना अधः वात-निसर्ग है। डकार लेने में जतना के लिए मुखवस्त्र या हाथ को मुंह के आगे रखना चाहिए। 909. नीचे की ओर पुतकर्षण करना अधोवात निसर्ग यतना है। इससे अन्यथा करना अविधि निसर्ग है। 910. छेदन-भेदन आदि करना असंक्लिष्ट कर्म है। वचन और काया से कंदर्प होता है। 911. हंसना हास्य कहलाता है। स्त्रीकथा, भक्तकथा आदि चार प्रकार की विकथाएं हैं। क्रोध आदि चार कषाय तथा शब्द, रूप आदि को विषय जानना चाहिए। * 1. निशीथ चूर्णि के अनुसार घास, पत्थर का टुकड़ा, राख और शराब आदि अदत्त ग्रहण करने पर पणग प्रायश्चित्त, वृक्ष आदि के नीचे बिना अनुज्ञा विश्राम करने पर लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। भाष्यकार के अनुसार निम्न कारणों से अदत्त ग्रहण किया जा सकता है१. अध्वान-अटवी में कोई आज्ञा देने वाला न हो तो तृण आदि लिया जा सकता है। 2. आगाढ़ रोग-अत्यधिक रोग की स्थिति में शीघ्रता के कारण द्रव्य आदि बिना आज्ञा लिए जा सकते हैं। 3. दुर्भिक्ष में अदत्त भक्त स्वयं ग्रहण कर सकता है। 4. अशिव गृहीत के लिए अदत्त संस्तारक आदि ले सकता है। ५.विकाल वेला में वसति उपलब्ध न होने पर श्वापद आदि के उपद्रव की स्थिति में गहस्वामी के न होने पर बिना अनुज्ञा रुक जाए फिर स्वामी से अनुज्ञा ली जा सकती है। 1. निचू 2 पृ. 82 / 2. विस्तार हेतु देखें निभा 890-94, चू. पृ. 82, 83 / 2. चूर्णिकार के अनुसार 'आदि' शब्द से संघर्षण, ईक्षु आदि पीलना, अभिघात, सिंचन, शरीर पर क्षार लगाना आदि / ' को भी असंक्लिष्ट कर्म के अन्तर्गत ग्रहण करना चाहिए। १.जीचू पृ.९।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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