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________________ 364 जीतकल्प सभाष्य . 912. शब्द आदि विषयों में साधु की सहसा या अनाभोग से जो आसक्ति है, वह विषयसंग है। अविधि विषयक गाथा समाप्त हो गई। 11. हिंसा न होने पर भी यतनायुक्त मुनि के सहसा या अजानकारी में सर्वत्र समिति-गुप्ति आदि में स्खलना होने पर मिथ्याकार प्रतिक्रमण होता है। 913. स्खलना दो प्रकार की होती है-सहसा तथा अजानकारी में। वह कहां दो प्रकार की होती है, वह . सब मैं कहूंगा। 914. सब व्रतों में, गुप्ति में, समिति में तथा ज्ञान आदि में सर्वत्र यह स्खलना होती है। 915. हिंसा नहीं होने पर भी यतना युक्त मुनि के सहसा और अजानकारी में स्खलना होने पर (मिथ्याकार प्रतिक्रमण होता है।) 916. उपयुक्त होकर करने पर भी जो अतिचार को नहीं जानता कि मैं यह कर रहा है अथवा करके भूल जाता है, वह अनाभोग' है। 917. पहले उपयुक्त होकर बोलने वाला सहसा प्रतिसेवना कर लेता है, वह वहां से निवृत्त नहीं हो पाता, यह सहसाकरण है। 918. सहसा और अनाभोग का संक्षेप में वर्णन कर दिया, इसका विशुद्धिस्थान मिथ्याकार प्रतिक्रमण है। 12. जानते हुए छोटी-छोटी बातों में स्नेह, भय, शोक', बकुशत्व आदि करने पर तथा कंदर्प, हास्य, विकथा आदि का प्रयोग होने पर प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त होता है। 919, 920. आभोग का अर्थ जानते हुए तथा तनु का अर्थ थोड़ा जानना चाहिए। बालक, शय्यातर या ज्ञाति आदि के प्रति यदि थोड़ा स्नेह आदि किया जाता है तो उसका प्रायश्चित्त मिथ्याकार प्रतिक्रमण होता है। 1. 'सर्वत्र' शब्द से यहां दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, समिति, गुप्ति, इंद्रिय आदि में स्खलना को ग्रहण करना चाहिए। १.जीचूपृ.९; सव्वत्थ वि त्ति सव्वपएसुदंसण-णाण-चरित्त-तव-समिइ-गुत्तिंदियाइसु खलियस्स। 2. यद्यपि अनाभोग में प्राणातिपात नहीं होता, फिर भी अनुपयुक्त भाव के कारण यह प्रतिसेवना है। 3. सचित्त, अचित्त अथवा मिश्र द्रव्य के संयोग और वियोग से उत्पन्न होने वाली मानसिक स्थिति शोक है।' १.जीचूपृ.९; सोगो सच्चित्ताचित्तमीसदव्वाण संजोगेण विओगेण य कओ होज्जा। 4. चूर्णिकार के अनुसार शरीर की सेवा में रत रहना तथा बार-बार हाथ-पांव धोना बकुशत्व' है। बकुश, शबल और कर्बुर-ये एकार्थक शब्द हैं। जिसका चारित्र अतिचार के पंक से चितकबरा हो जाता है, वह बकुश कहलाता है। १.जीचूपृ.९; बाउसत्तं सरीरसुस्सूसापरायणत्तं हत्थपायाइधोवणं। २.जीचूवि पृ. 43; बउसं सबलं कब्बुरमेगटुं तमिह जस्स चारित्तं।अइयारपंकभावा, सो बउसो होइ नायव्यो॥ 5. चूर्णि के अनुसार 'आदि' शब्द से पार्श्वस्थ, अवसन्न और संसक्त आदि गृहीत हैं।' १.जीचू पृ.९,१०;आइसद्देण कुसील-पासत्थोसन्नसंसत्ता घेण्यंति।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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