________________ अनुवाद-जी-१२, 13 365 921-23. अल्प स्नेह का वर्णन कर दिया, अब मैं सात प्रकार के भय को कहूंगा-१. इहलोकभय 2. परलोकभय 3. आदानभय 4. अकस्माद्भय 5. आजीविकाभय' 6. अश्लोक-अकीर्ति भय 7. तथा मरणभय। इनकी संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है-अपनी जाति से मनुष्य-मनुष्य से, देव-देव से तथा तिर्यञ्च-तिर्यञ्च से भयभीत होता है, इसे इहलोकभय जानना चाहिए। मनुष्य यदि विसदृश-तिर्यञ्च या देव आदि से भयभीत होता है तो वह परलोकभय है। 924. चोर आदि द्वारा धन लेने पर जो भय पैदा होता है, वह आदान भय है। उसकी रक्षा के लिए मनुष्य बाड़ या प्राकार-परकोटे आदि का निर्माण करवाता है। 925, 926. अटवी में रात्रि में कुछ दिखाई नहीं देने पर भी बिना कारण जो भय पैदा होता है, वह अकस्मात् भय कहलाता है। दुष्काल है, अतिथि आ गए हैं, अब मैं कैसे जीवन-यापन करूंगा, निर्धन का यह चिन्तन आजीविकाभय है। मरण महान् भय है अत: वह सिद्ध ही है। 927. अश्लोक का अर्थ है-अयश। यदि ऐसा कार्य करूंगा तो लोक में अयश होगा, शीत आदि से जो भय पैदा होता है, वह वेदनाभय है। 928. यह सात प्रकार का भय है। इनमें अल्प मात्रा में वर्तन करने पर उसका विशोधिस्थान मिथ्याकार प्रतिक्रमण है। 929. जानते हुए वियोग में शोक और चिन्ता आदि करने पर उसका प्रायश्चित्त मिथ्याकार प्रतिक्रमण है। 930. बाकुशिक पांच प्रकार का होता है-१. आभोग 2. अनाभोग 3. संवृत 4. असंवृत तथा 5. यथासूक्ष्म। यहां सूक्ष्म आभोग का प्रसंग है। . 1. निशीथ भाष्य में भय उत्पत्ति के चार कारण बताए हैं। वहां इन सात भयों का समवतार भी इन चार प्रकार के भयों में किया गया है. दिव्यभय-राक्षस, पिशाच आदि से उत्पन्न। मानुष्यभय-चोर आदि से उत्पन्न। तैरश्चिकभय-जल, अग्नि, वाय, हाथी आदि से उत्पन्न। अकस्माद्भय-निर्हेतुक भय। इन चारों के दो-दो भेद हैं-सत और असत् / पिशाच, सिंह आदि का भय सत् तथा बिना देखे भय उत्पन्न होना असत् है। चूर्णिकार के अनुसार इहलोकभय का मानुष्य भय में, परलोकभय का दिव्य और तिर्यञ्चभय में समवतार होता है तथा आदान, आजीविका आदि चारों भयों का दिव्यभय आदि तीनों में समवतार होता है। 1. निभा 3314, 3315 चू पृ. 185, 186 / 2. स्थानांग सूत्र में आजीविका भय के स्थान पर वेदना भय का नामोल्लेख है। वहां छठे और सातवें भय में क्रमव्यत्यय है। पहले मरणभय तथा बाद में अश्लोक भय है। १.स्था 7/27 /