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________________ 362 जीतकल्प सभाष्य 895, 896. बाहर से उपाश्रय में आकर साधु बोला-'आज मैंने घोड़े के मुंह वाली एक स्त्री को देखा।' ऐसा कहने पर लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। साधुओं ने पूछा-'कहां?' तो उसने कहा उद्यान में, ऐसा कहने वाले को गुरुमास, देखने के लिए साधुओं के प्रस्थित होने पर चतुर्लघु, घोड़ियों को देखने पर भी अपनी बात पर दृढ़ रहने पर चतुर्गुरु, देखकर लौटने पर षड्गुरु, गुरु के समक्ष आलोचना करने पर षड्लघु, फिर भी कहना कि घोटकमुखी स्त्रियों को देखा तो छेद, साधुओं ने उससे कहा-'उनको तुम स्त्रियां कैसे कहते हो?' ऐसा कहने पर वह बोला-'तो क्या वे मनुष्य हैं' ऐसा कहने पर मूल, तुम सब एक हो गए हो, मैं अकेला हूं, ऐसा कहने पर अनवस्थाप्य, 'तुम सब प्रवचन से बाहर हो', ऐसा कहने पर पारांचित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 897. साधुओं ने कहा-'तुम अभी जा रहे हो?' साधु ने कहा-'अभी नहीं जाऊंगा।"तत्क्षण चलने पर उससे पूछा कि तुम अभी कैसे जा रहे हो? यह पूछने पर वह बोला-'मेरे कथन का तात्पर्य था अभी तक परलोक या मोक्ष जाने का समय नहीं आया है।' 898. एक साधु ने दूसरे साधु से पूछा-'तुम किस दिशा में भिक्षार्थ जाओगे?' उसने कहा-'पूर्व दिशा में।' वह पश्चिम दिशा में चला गया। उसने पूछा कि तुम पूर्व दिशा में क्यों नहीं गए? साधु बोला'पश्चिम दिशावर्ती गांव की अपेक्षा क्या यह पूर्व दिशा नहीं है?' 899. भिक्षार्थ प्रस्थित मुनि ने दूसरे मुनि से कहा-'तुम लोग जाओ, मैं एक ही कुल में जाऊंगा।' अनेक कुलों में जाने पर साधुओं ने उससे पूछा-'तुम अनेक कुलों में कैसे जा रहे हो?' साधु बोला'मैं एक शरीर से दो कुलों में एक साथ कैसे प्रवेश कर सकता हूं' अतः एक समय में एक ही कुल में जा रहा हूं। 900. भिक्षा हेतु चलने के लिए कहने पर दूसरा मुनि बोला-'तुम भिक्षार्थ जाओ, मुझे एक ही द्रव्य ग्रहण करना है।' अनेक द्रव्य ग्रहण करने पर उससे पूछा गया कि तुम अनेक द्रव्य क्यों ग्रहण कर रहे हो? उसने उत्तर दिया-'छह द्रव्यों में ग्रहण लक्षण वाला केवल पुद्गलास्तिकाय है अतः मैं केवल एक ही द्रव्य को ग्रहण कर रहा हूं।' 901. पचला आदि पदों को संक्षेप में वर्णित किया है, इनमें लघुमास या गुरुमास प्रायश्चित्त तक लघुस्वक सूक्ष्म मृषा जानना चाहिए। 902. तृण, डगलक-पत्थर का टुकड़ा, क्षार-राख, मल्लक, अवग्रह आदि को बिना आज्ञा लेना 1. बृहत्कल्पभाष्य में अंतिम तीन प्रायश्चित्त प्रकारान्तर से वर्णित हैं। तुम सब एक साथ मिल गए हो, ऐसा कहने पर मूल, मैं अकेला रह गया, क्या करूं ऐसा कहने वाले को अनवस्थाप्य तथा तुम सब प्रवचन से बाहर हो, ऐसा कहने वाले को अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1. बृभा 6082 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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