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________________ जीतकल्प सभाष्य - भाष्यकारो भाष्यं कृतवान्' इतना सा उल्लेख मात्र किया है। निशीथ भाष्य की चूर्णि. एवं बृहत्कल्प भाष्य की टीका के अनेक उद्धरणों को देखकर पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने निशीथ पीठिका की भूमिका में अनेक हेतुओं से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ भाष्य के कर्ता आचार्य सिद्धसेन होने चाहिए। यदि मालवणियाजी के इस तर्क को स्वीकार किया जाए तो एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि चूर्णिकार ने ग्रंथ के प्रारंभ में एवं प्रशस्ति श्लोकों में कहीं भी आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख क्यों नहीं किया? यदि आचार्य सिद्धसेन को भाष्यकार के रूप में स्वीकृत किया भी जाए तो एक प्रश्न पुनः उठता है कि ये सिद्धसेन कौन-से आचार्य थे? क्योंकि इतिहास में सिद्धसेन के रूप में अनेक आचार्यों के नाम प्रसिद्ध हैं। प्रथम सन्मतितर्कप्रकरण के कर्ता आचार्य सिद्धसेन दिवाकर तथा दूसरे तत्त्वार्थसूत्र पर भाष्यानुसारिणी टीका लिखने वाले सिद्धसेन क्षमाश्रमण। इसके अतिरिक्त जीतकल्प पर चूर्णि लिखने वाले सिद्धसेनगणि। निशीथ चूर्णि में भी आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने योनि-प्राभृत ग्रंथ से अश्व का निर्माण किया था। इनका सम्बन्ध सिद्धसेन क्षमाश्रमण या फिर अन्य सिद्धसेन नामक आचार्य से होना चाहिए। सिद्धसेन दिवाकर भाष्यकार नहीं थे, यह इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि चूर्णिकार और टीकाकार ने सिद्धसेन नाम के साथ क्षमाश्रमण विशेषण का प्रयोग किया है, न कि दिवाकर का। वैसे भी कालक्रम के निर्धारण में सिद्धसेन दिवाकर सिद्धसेन क्षमाश्रमण से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि जीतकल्प चूर्णि के कर्ता आचार्य सिद्धसेन ही भाष्यकर्ता सिद्धसेन क्षमाश्रमण हैं लेकिन अभी इस विषय में और अधिक खोज की आवश्यकता है। यद्यपि निशीथ चूर्णिकार ने अनेक स्थलों पर 'अस्य सिद्धसेनाचार्यो व्याख्या करोति' का उल्लेख किया है। उस तर्क के आधार पर उनको सम्पूर्ण ग्रंथ का कर्ता नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त चूर्णिकार ने ग्रंथ के प्रारम्भ एवं अंतिम प्रशस्ति में कहीं भी आचार्य सिद्धसेन का उल्लेख नहीं किया है। मुनि पुण्यविजयजी बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ-इन तीनों भाष्यों के कर्ता संघदासगणि को मानते हैं। बृहत्कल्प लघुभाष्य के छठे भाग की भूमिका में वे लिखते हैं कि यद्यपि मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है फिर भी ऐसा लगता है कि कल्प (बृहत्कल्प) लघुभाष्य, व्यवहार और निशीथ लघुभाष्य के प्रणेता श्री संघदासगणि हैं। उनके अभिमत से संघदासगणि नाम के दो आचार्य हुए। प्रथम संघदासगणि जो 'वाचक पद' से विभूषित थे, उन्होंने वासुदेवहिण्डी के प्रथम खण्ड की रचना की। द्वितीय संघदासगणि 1. बृभापीटी पृ. 2 / २.निपीभू पृ. 40-46 / 3. निभा. 2 चू पृ. 281; जोणिपाहुडातिणा जहा सिद्धसेणा यरिएण अस्साए कता।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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