________________ जीतकल्प सभाष्य | 264. 114-24. केवली से श्रुतज्ञानी की तुलना एवं | 211-41. विनयप्रतिपत्ति के चार भेद एवं उनकी उनके द्वारा व्यवहार का प्रयोग। व्याख्या। . . 125, 126. आगमव्यवहारी के द्वारा व्यवहार का | 242-45. आगमव्यवहारी का स्वरूप। प्रयोग। 246-51. आलोचना के दश गुण एवं उनकी 127-29. आराधक कौन? व्याख्या। 130. आलोचना का महत्त्व। 252-54. आगम व्यवहारी के अन्यान्य गुण। 131-33. व्यवहार का प्रयोग द्रव्य, क्षेत्र, काल | 255-62. शिष्य की जिज्ञासा-वर्तमान में आगम आदि के आधार पर। व्यवहारी, चतुर्दशपूर्वी और चारित्र१३४-३८. दोष सेवन के सहसाकरण, अज्ञान शुद्धि का व्यवच्छेद। आदि कारण तथा उनकी व्याख्या। | 263. प्रायश्चित्त विच्छेद विषयक आचार्य 139, 140. आगम विमर्श का स्वरूप। का समाधान। 141. आप्त का स्वरूप-कथन। सूत्र और अर्थ का विमर्श। 142. तदुभय का स्वरूप। 265. निशीथ, कल्प और व्यवहार का 143-48. आगमव्यवहारी किसको प्रायश्चित्त नहीं | निर्वृहण नौवें पूर्व से। देते तथा किसको देते हैं? छेदसूत्रों के ज्ञाता की विद्यमानता। 149-59. प्रायश्चित्त देने के योग्य कौन? स्वपद प्ररूपणा आदि द्वार। 160. __अष्टविध गणिसंपदा के बत्तीस स्थान। | 268-72. आठ प्रायश्चित्तों की यथावत् अवस्थिति 161. आठ गणिसम्पदाओं के नाम। में चक्रवर्ती के प्रासाद का उदाहरण। 162-66. आचार-सम्पदा के चार भेद। | 273. परोक्ष व्यवहारी का प्रत्यक्ष व्यवहारी 167-70. श्रुत-सम्पदा के चार भेद। की भांति व्यवहार। 171-74. शरीर-सम्पदा के चार भेद। 274. प्रायश्चित्त के दश प्रकार। 175-78. वचन-सम्पदा के चार भेद। 275, 276. दश प्रायश्चित्तों की चतुर्दशपूर्वी तक 179-84. वाचना-सम्पदा के चार भेद। अवस्थिति। 185-91. मति-सम्पदा के चार भेद। 277. उसके बाद अंतिम दो प्रायश्चित्तों का 192-96. प्रयोगमति-सम्पदा के चार भेद। विच्छेद। 197-05. संग्रहपरिज्ञा-सम्पदा के चार भेद। | 278. आठ प्रायश्चित्तों की वार्तमानिक 206-10. बत्तीस एवं छत्तीस स्थानों से युक्त अवस्थिति के बारे में शिष्य की आचार्य ही व्यवहार करने के योग्य। | जिज्ञासा। 266. 267.