________________ 253 जीतकल्प सभाष्य 2485. मुहणंतगमालोयण, आणियमुक्कोस गहित गुरुणा य। कुवितेण णिसी गंतुं, गलए लइओ य पासुत्तो' / 2486. सम्मूढेणितरेण वि, गलए लइओ उ तो मता दो वि। अण्णो पुण सिव्वंतो, अत्थमिते गुरुहिँ अह भणितो॥ 2487. अत्थमितम्मि वि सिव्वसि, उलुगसरिच्छच्छि तो वदे रुसितो। तुह उक्खणामि' अच्छी, खामिजंतो वि ण. वि पसिए / 2488. तो ठवित गणिं गच्छे, भत्तपरिण्णं करेति अण्णगणे। ___जह पढमो णवरि इहं, उलुगच्छीउ त्ति ढोकें ति // 2489. अवरो वि सिहरिणीए, छंदिय सव्वाइयं तो उग्गिरणा। तत्थेव तू परिण्णा, ण गच्छती णवर अण्णत्थं // 2490. जम्हा एते दोसा, तम्हा ण वि गेण्हितव्वगं गुरुणा। एगस्सेव - तु सव्वं, अण्णायायारसीलस्स॥ 2491. गहणम्मि विधी इणमो, जइ गहिता मत्तगा तु सव्वेहिं / तेसि णिमंतेंताणं, अलाहि पज्जतमो बेंति // 2492. णिब्बंधे थोवथोवं, सव्वेसिं गेण्हते णः एगस्स। सव्वेसिं पि ण गेण्हति, बितियादेसेण गहितं पि॥ 2493. गुरुभत्तिमं जो 'य मणाणुकूलो", सो गिण्हती णिस्समणिस्सयो वा। तस्सेव सो गेण्हति णेतरेसिं, अलब्भमाणम्मि व थोब थोवं॥ 2494. सति ‘लाभम्मि व" गेहति, इतरेसिं जाणिऊण णिब्बंध। मुंचति य० सावसेसं, जाणति उवयारभणितं च॥ १.कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.६०। 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.६१। 2. अक्खणामि (ता)। 5. तु. पंक 457, तु.७ 4992, कथा के विस्तार हेतु देखें 3. यहां छंद की दृष्टि से 'पसीए' के स्थान पर 'पसिए' पाठ परि. 2, कथा सं.६२। है, गा. 2487 तथा २४८८-इन दोनों गाथाओं के स्थान 6. वा (ब)। पर ब (4991) तथा पंक (456) में निम्न गाथा मिलती 7. हिययाण' (बु 5000) / 8. थोवा (ला)। अत्थंगए वि सिव्वसि, उलुगच्छी ! उक्खणामि ते अच्छी। 9. लंभम्मि वि (बृ५००१)। पढमगमो नवरि इहं, उलुगच्छीउ त्ति ढोक्केति॥ १०.व (ता)।