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________________ 604 जीतकल्प सभाष्य क्षुल्लक घृत और गुड़ से युक्त सेवई का पात्र लेकर अपने उपाश्रय में चला गया। (यह मानपिण्ड का उदाहरण है)। 45. मायापिण्ड : आषाढ़भूति कथानक राजगृह नगरी में सिंहरथ नामक राजा राज्य करता था। उसी नगरी में विश्वकर्मा नामक नट की दो पुत्रियां थीं, वे अत्यन्त सुरूप एवं सुघड़ देह वाली थीं। एक बार ग्रामानुग्राम विहार करते हुए धर्मरुचि आचार्य वहां आए। उनके एक अंत:वासी शिष्य का नाम आषाढ़भूति था। वह भिक्षार्थ घूमते हुए विश्वकर्मा नट के घर में प्रविष्ट हुआ। वहां उसने विशिष्ट मोदक प्राप्त किया। नट के गृह-द्वार से बाहर निकलने पर आषाढ़भूति मुनि ने सोचा—'यह मोदक तो आचार्य के लिए होगा अतः रूप-परिवर्तन करके अपने लिए भी एक मोदक प्राप्त करूंगा।' उसने आंख से काने मुनि का रूप बनाया और दूसरा मोदक प्राप्त किया। बाहर निकलकर पुनः चिन्तन किया—'यह उपाध्याय के लिए होगा' अतः पुनः कुब्ज का रूप बनाकर नट के घर में प्रवेश किया। तीसरा मोदक प्राप्त करके मुनि ने सोचा कि यह सिंघाड़े के मुनि के लिए होगा अतः इस बार कुष्ठी का रूप धारण करके घर में प्रवेश किया। मुनि को चौथा मोदक प्राप्त हो गया। माले के ऊपर बैठे विश्वकर्मा ने इतने रूपों का परिवर्तन करते हुए देखा। उसने सोचा कि यदि यह हमारे बीच रहे तो.. अच्छा रहेगा। इसको किस विधि से आकृष्ट करना चाहिए, यह सोचते हुए नट के मन में एक युक्ति उत्पन्न / हुई। उसने सोचा पुत्रियों के द्वारा मुनि के मन को विचलित करके ही इसका मन संसार की और खींचा जा सकता है। नट माले से उतरकर मुनि के पास गया और आदरपूर्वक पात्र भरकर मोदकों का दान दिया। नट ने कहा—'आपको प्रतिदिन हमारे घर भक्तपान ग्रहण करने का अनुग्रह करना है।' वह अपने उपाश्रय में चला गया। विश्वकर्मा ने अपने परिवार के समक्ष आषाढ़भूति की रूप-परिवर्तन विद्या के बारे में बताया तथा अपनी दोनों पुत्रियों से कहा कि तुमको स्नेहयुक्त दृष्टि से दान देते हुए मुनि को अपनी ओर आकृष्ट करना है। आषाढ़भूति प्रतिदिन भिक्षार्थ आने लगा। दोनों पुत्रियों ने वैसा ही किया। मुनि को अपनी ओर अनुरक्त देखकर एक बार एकान्त में उन्होंने मुनि से कहा 'हमारा मन आपके प्रति अत्यधिक आकृष्ट है अतः हमारे साथ विवाह करके भोगों का सेवन करो।' यह सुनकर मुनि आषाढ़भूति का चारित्रावरणीय कर्म उदय में आ गया, जिससे गुरु का उपदेश रूपी विवेक हृदय से निकल गया। कुल और जाति का अभिमान समाप्त हो गया। मुनि ने दोनों नटकन्याओं को कहा—'ऐसा ही होगा लेकिन पहले मैं गुरु-चरणों में मुनि-वेश छोड़कर आऊंगा।' आषाढ़भूति मुनि गुरु-चरणों में प्रणत हुआ और अपने अभिप्राय को प्रकट कर दिया। गुरु ने प्रेरणा देते हुए कहा'वत्स! तुम जैसे विवेकी, शास्त्रज्ञ व्यक्ति के लिए उभयलोक में जुगुप्सनीय यह आचरण उचित नहीं है। 1. जीभा 1395-97, पिनि 219/1-8, मटी प.१३४-३६, निभा 4446-53, चू पृ. 419-21 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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