________________ 664 जीतकल्प सभाष्य अतिबहुक, अतिबहुशः तथा अतिप्रमाण में किया हुआ भोजन अतिसार पैदा कर देता है, उससे वमन हो सकता है। वह आहार जीर्ण न होने पर व्यक्ति को मार भी सकता है। . हितमहितं होति दुहा, इह परलोगे य होति चउभंगो। इहलोग हितं ण परे, किंचि परे णेय इहलोगे॥ किंचि हितमुभयलोगे, णोभयलोगे चतुत्थओ भंगो। पढमगभंगो तहियं, जे दव्वा होति अविरुद्धा॥ जह खीर-दहि-गुलादी, अणेसणिज्जा व रत्तदुढे वा। भुंजंते होति हितं, इहइं ण पुणाइँ परलोगे॥ अमणुण्णेसणसुद्धं, परलोगहितं ण होति इहलोगे। पत्थं एसणसुद्धं, उभयहितं होति णातव्वं॥ अहितोभयलोगम्मी, अपत्थदव्वं अणेसणिज्जं च। अहवा वि रत्तदुट्ठो, भुंजति एत्तो मितं वोच्छं॥ . 1633-37 आहार दो प्रकार का होता है-हितकर और अहितकर। इहलोक में हितकर तथा परलोक में हितकर की चतुर्भंगी इस प्रकार है * इहलोक में हितकर, परलोक में नहीं। * परलोक में हितकर, इहलोक में नहीं। न परलोक में हितकर, न इहलोक में। * इहलोक में हितकर, परलोक में भी हितकर। प्रथम भंग में जो अविरोधी द्रव्य होते हैं, वे ग्राह्य हैं, जैसे खीर, दधि, गुड़ आदि। इनको अनेषणीय ग्रहण करके राग और द्वेष से भोग करना इहलोक में हितकर है लेकिन परलोक के लिए हितकर नहीं है। शुद्ध एषणा से प्राप्त अमनोज्ञ आहार परलोक के लिए हितकर है, इस लोक के लिए नहीं। पथ्य और एषणा से शुद्ध आहार को दोनों लोकों के लिए हितकर जानना चाहिए। अपथ्य और अनेषणीय आहार दोनों लोकों के लिए अहितकर है अथवा राग और द्वेष से आहार करना दोनों लोकों के लिए अहितकर है। अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भागे। वायुपवियारणट्ठा, छब्भागं ऊणगं कुज्जा॥ 1638 उदर के छह भाग करके आधे उदर अर्थात् तीन भागों को व्यंजन सहित आहार के लिए; दो