________________ परिशिष्ट-१० आयुर्वेद एवं चिकित्सा 507 सीतघरम्मि व डाहं, वंजुलरुक्खो व जह व उरगविसं। 236 शीतगृह दाह का अपनयन करता है और वंजुल वृक्ष सर्प के विष को दूर कर देता है। तेल्लस्स उगंडूस....गल्लधरणं तु, लुक्खत्ता मुहजंतं, मा हु खुभेज त्ति तेण धारेति। 352,353 तेल का कुल्ला गले को ठीक करता है। रूक्षता से मुखयंत्र क्षुभित न हो इसलिए मुख में तैल धारण किया जाता है। मेहादव्वे व एसती पियति। 418 मेधा बढ़ाने के लिए मेध्य द्रव्यों का पान किया जाता है। संबद्ध हत्थ-पादादओ व वारण होज्जाहि। अत्यधिक वायु से हाथ पैर जकड़ जाते हैं अर्थात् लकवा हो जाता है। वाइय-पित्तिय-सिंभिय, अहवा वी होज्ज सण्णिवाएणं। एतेहि अणप्पवसो। 938 वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात आदि कारणों से व्यक्ति परवश हो जाता है। खद्धे णिद्धे य रुया। 1188 अत्यधिक स्निग्ध भोजन करने से रोग उत्पन्न हो जाते हैं। * संसोधण संसमणं, णिदाणपरिवजणं च जं जत्थ। आगंतुधातुखोभे, व आमए कुणति किरियं तु॥ 1390 * आगंतुक और धातुक्षोभज रोग उत्पन्न होने पर विविध क्रियाएं की जाती हैं-१. पेट का शोधन 2. पित्त का शमन और फिर रोग का परिहार। बत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणितो। पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला॥ चउवीस पंडगस्सा, ते ण गहित जेण पुरिस-इत्थीणं। पव्वज ण पंडस्स उ, तम्हा ते ण गहिता एत्थं // 1622, 1623 पुरुषों के लिए बत्तीस कवल तथा स्त्रियों के लिए 28 कवल आहार कुक्षिपूरक माना जाता है। नपुंसक का आहार चौबीस कवल प्रमाण होता है। अतिबहुयं अतिबहुसो, अतिप्पमाणेण भोयणं भुत्तं। हादेज्ज व वामेज व, मारेग्ज व तं अजीरंतं॥ 1627