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________________ अनुवाद-जी-३१-३४ 381 1063, 1064. पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और नित्यवासी साधुओं पर तथा परिवार के लिए ममत्व आदि करता है तो भिक्षु आदि चारों को क्रमशः निर्विगय से लेकर आयम्बिल पर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1065. (जीसू 30) में आए 'आदि' शब्द के ग्रहण से श्रद्धालु, ज्ञाति और शय्यातर का ग्रहण करना चाहिए। इनके द्वारा आहार आदि दिए जाने पर ममत्व आदि करे तो भी प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1066, 1067. वात्सल्य देने से यह साधर्मिक संयम में उद्यम करेगा, कुल, गण, संघ और ग्लान की चिन्ता करेगा, इस दृढ़ आलम्बन से यदि साधु उसकी ममत्व-परिपालना या संभाल करे अथवा वात्सल्य दे तो वह सर्वत्र शुद्ध रहता है। 1068. ये अष्टविध दर्शन अतिचार कहे गए हैं, अब मैं संक्षेप में चारित्र के अतिचार कहूंगा। 31. एकेन्द्रिय आदि जीवों का घट्टन करने पर निर्विगय, अनागाढ़ योग में परितापित करने पर पुरिमार्ध, आगाढ़ योग में परितापित करने पर एकासन तथा इनका अपद्रावण-पीड़ित करने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1069. एकेन्द्रिय में पृथ्वी, अप् आदि तथा प्रत्येक वनस्पति-इन पांचों के पृथक्-पृथक् संघट्टन में निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1070. यदि अनागाढ़ योग में परितापित किया जाता है तो पुरिमार्ध, आगाढ़ योग में परितापित करने पर एकासन तथा इन पांचों का अपद्रावण करने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं अनंतकाय वनस्पति आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्त कहूंगा। 32. साधारण वनस्पति और विकलेन्द्रिय-इनमें से प्रत्येक के संघट्टन में पुरिमार्ध से उपवास पर्यन्त प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। पंचेन्द्रिय के संघट्टन आदि में एकासन आदि तथा अपद्रावण में एक कल्याणक की प्राप्ति होती है। 1071. साधारण वनस्पति काय में तथा विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-इन चारों का पृथक्-पृथक् संघटन करने पर पुरिमार्ध प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1072. अनन्तकाय वनस्पति के अनागाढ़ परितापन में एकासन, आगाढ़ परितापन में आयम्बिल तथा अपद्रावण करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं पंचेन्द्रिय की विशोधि इस प्रकार कहूंगा। 1073. पंचेन्द्रिय का संघट्टन करने पर एकासन प्रायश्चित्त जानना चाहिए। अनागाढ़ परितापित करने पर आयम्बिल तथा आगाढ़ परितापित करने पर उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1074. पंचेन्द्रिय का अपद्रावण करने पर एक कल्याणक की प्राप्ति होती है। प्रमादसहित मुनि की प्रथमव्रत में यह शोधि होती है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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