________________ 380 जीतकल्प सभाष्य 1052. लोक में तीर्थंकर, प्रवचन, मोक्षमार्ग-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्रभावना करना प्रशस्त है। 1053. मिथ्यात्व, अज्ञान आदि की प्रभावना करना अप्रशस्त है। यह दर्शनाचार है, अब मैं इनके प्रायश्चित्त को कहूंगा। 28. शंका आदि चार पदों के देशभंग होने पर तथा मिथ्या उपबृंहण आदि चार पदों में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। पुरुष विभाग से भिक्षु, वृषभ आदि चारों को क्रमशः पुरिमार्ध से उपवास तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1054. शंका आदि आठों पद देश और सर्व के भेद से दो प्रकार के होते हैं। शंका आदि चारों पदों में देश अतिक्रमण में उपवास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1055. उपबृंहण आदि चारों पदों में देश अप्रशस्त का प्रयोग होने पर उपवास तथा सर्व अप्रशस्त का प्रयोग होने पर मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार सर्व शंका आदि में भी मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1056. यह सामान्य रूप से प्रायश्चित्त-विधि कही गई है। पुरुष विभाग से देश-विशोधि इस प्रकार होती है१०५७, 1058. शंका आदि आठ पदों में देश शंका आदि होने पर भिक्षु को पुरिमार्ध, वृषभ को एकासन, उपाध्याय को आयम्बिल तथा आचार्य को उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यह विभागतः प्रायश्चित्त का वर्णन है। अब उपबृंहण आदि न करने पर साधु की शोधि कैसे होती है, इसका वर्णन करूंगा। 29. यदि साधुओं का प्रशस्त उपबृंहण आदि नहीं करके पार्श्वस्थ या श्राद्ध (श्रावक) का उपबृंहण आदि किया जाता है तो भिक्षु आदि चारों को क्रमशः निर्विगय से लेकर आयम्बिल तक प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1059. यदि प्रशस्त साधुओं का उपबृंहण नहीं होता तो पुरुष भेद से भिक्षु, वृषभ आदि को पृथक्-पृथक् प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1060, 1061. इसी प्रकार प्रशस्त स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना न करने पर भिक्षु आदि की इस प्रकार विशुद्धि होती है-भिक्षु को पुरिमार्ध, वृषभ को एकासन, उपाध्याय को आयम्बिल और आचार्य को उपवास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1062. गाथा (जीसू 29) के पश्चार्द्ध का अगली गाथा के साथ सम्बन्ध है। इसको स्पष्ट करने के लिए मैं इसका सम्बन्ध कहूंगा। 30. सहयोग के लिए यदि साधु ममत्व, परिपालन आदि वात्सल्य करता है तो उपर्युक्त गाथा 29 में वर्णित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यह साधर्मिक संयम की वृद्धि करेगा, संघ की सेवा करेगा, इस दृष्टि से वात्सल्य किया जाता है तो साधु सर्वत्र शुद्ध रहता है। 1. निशीथ भाष्य एवं उसकी चूर्णि में विस्तार से प्रायश्चित्त का वर्णन मिलता है। 2. गाथा 29 का पश्चार्द्ध 30 वीं गाथा के साथ जुड़ा हुआ है।