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________________ अनुवाद-जी-३५ 413 1360. कर्म अथवा शिल्प विषयक कर्ता के प्रयोजन के निमित्त एकत्रित अनेक वस्तुओं को देखकर यह सम्यक् है अथवा असम्यक्, ऐसा अपने कौशल से जताना अथवा स्पष्ट रूप से कहना कर्म और शिल्प की उपजीवना है। 1361. इन सबमें नियमतः भद्रक और प्रान्त दोष होते हैं, यह आजीवकपिण्ड का वर्णन है, अब मैं वनीपकपिण्ड' के बारे में कहूंगा। 1362. (शिष्य पूछता है-) वनीपक किसको कहते हैं? आचार्य कहते हैं-वनु-याचने धातु से वनीपक शब्द निष्पन्न है। स्वयं को श्रमण आदि का भक्त बताकर याचना करने वाला वनीपक कहलाता है। 1363. याचना के द्वारा जीवन चलाने वाले वनीपक के पांच प्रकार जानने चाहिए-श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि और श्वान। 1364. श्रमण, माहन, कृपण, अतिथि और श्वान-इन पांचों से सम्बन्धित वनीपकत्व करने पर प्रत्येक का चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। 1365. जिसकी मां मर गई हो, ऐसे बछड़े के लिए ग्वाला अन्य गाय की खोज करता है, वैसे ही आहार आदि के लोभ से जो श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि अथवा श्वान के भक्तों के सामने स्वयं को उनका भक्त दिखाकर याचना करता है, वह वनीपक है। 1366. श्रमण के पांच प्रकार हैं-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक तथा आजीवक। भोजन देते समय कोई मुनि आहार आदि के लोभ से स्वयं को शाक्य आदि का भक्त बताता है, यह उसकी वनीपकता है। 1367. बौद्ध भिक्षु आदि को देखकर उनको प्रीतिपूर्वक भोजन देते देखकर साधु उनके अनुकूल बोलता है-'विप्र! तुमने अच्छा किया, जो इनको दान दे रहे हो।' 1368. ये शाक्य भिक्षु भित्ति-चित्र की भांति अनासक्त रूप से भोजन करते हैं। ये परम कारुणिक एवं दानरुचि हैं। कामगर्दभ-मैथुन में अत्यंत आसक्त इन ब्राह्मणों को दिया हुआ भी नष्ट नहीं होता तो भला शाक्य आदि भिक्षुओं को दिया हुआ व्यर्थ कैसे होगा? 1369. शाक्य आदि की प्रशंसा से मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है, उद्गम आदि दोषों का समाचरण होता है। लोगों में वह अवर्णवाद होता है कि ये साधु चाटुकारी हैं, इन्होंने कभी दान नहीं दिया है अथवा शाक्य आदि के भक्त यदि द्वेषी हैं तो यह कह देते हैं कि यहां फिर मत आना। 1370. इसी प्रकार ब्राह्मण को दिए जाने पर भी उनके अनुकूल बोलता है। श्रमण और ब्राह्मण दोनों का वर्णन कर दिया गया। 1371. (मुनि ब्राह्मण-भक्तों के समक्ष ब्राह्मणों की प्रशंसा रूप वनीपकत्व करते हुए कहता है-) लोकोपकारी भूमिदेव-ब्राह्मणों को दिया हुआ दान बहुत फलदायी होता है। ब्राह्मण बंधु अर्थात् जातिमात्र 1. वनीपकपिण्ड के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 95, 96 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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