________________ 176 जीतकल्प सभाष्य 1695. आहारेति अकज्जे, ण 'समुद्दिसे व'' कारणे जो तु। एस विवज्जो भणितो, सव्वत्थ वि सोधि आयामं // अज्झोतर-कड-पूतिय-मायाणंते परंपरगते य। मीसाणंताणंतरगतादिए चेगमासणगं॥ 39 // 1696. पासंडऽज्झोयरओ, साहूअज्झोतरो य णातव्वो। ___होति कडो चउधा तू, जावंतिगमादि विण्णेयो॥ 1697. आहारें पूतियम्मी, मायापिंडे य होति णातव्वे। ___ सच्चित्तऽणंतकाए, परंपरे जं तु णिक्खित्तः / / 1698. मीसाणंतअणंतरणिक्खित्ते चेव होति णातव्वे / आदिग्गहणे पिहिते, साहरिते मीसगे चेव॥ 1699. गहिताणंतपरंपरमीसऽतिरं पिहितमादि बोद्धव्वं / एव जहुद्दिढेसू, सव्वत्थ वि सोधि भत्तेक्कं // ओह-विभागुद्दे सोवकरण-पूतीय-ठवित-पागडिए। लोगुत्तर-परियट्टिय, पमेय'-परभावकीते . य॥ 40 // 1700. ओहुद्देसविभागे, उद्देस चउब्विधे तु णातव्वे। उवगरणपूतिए या, चिरठविते पागडे चेव॥ 1701. लोउत्तरपामिच्चे, परियट्टिय उत्तरे य णातव्वे। पर भावकीय मंखादिगे सु . सव्वेसु उद्दिढे // 1702. पत्तेयं पत्तेयं, सोधी एत्थं तु होति पुरिमड्डूं। सग्गामाहडमादी, एत्तो एवं पवक्खामि॥ सग्गामाहड-दद्दर-जहण्णमालोहडोतरे पढमे। सुहुमतिगिच्छा - संथवतिग - मक्खित - दायगोवहते॥४१॥ 1703. सग्गामाहड-दद्दर, उब्भिण्णे अहव गंठिसहिते" तु। मालोहडे जहण्णे, उयरो अज्झोयरो होति // 1. “द्दिसेए (पा), "द्दिसे एवं (ला, मु)। 5. पामिच्च (मु)। 2. 'क्खित्ते (मु, ता)। 6. पत्ते (मु, पा, ला)। 3. महि" (ता, पा, ला)। 7. गट्ठि (ता, पा)। 4. सव्वट्ठ (ब)।