SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 130 जीतकल्प सभाष्य कायोत्सर्ग की विधि माया रहित होकर अवस्था और शारीरिक बल को ध्यान में रखकर स्थाणु की भांति निष्पकम्प होकर कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग का प्रारम्भ कायोत्सर्ग-प्रतिज्ञा सूत्र बोलकर किया जाता है, जिसमें यह संकल्प किया जाता है कि मैं अतिचारों को संस्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशोधि करने के लिए, शल्य रहित होने के लिए, पाप कर्मों का नाश करने के लिए कायोत्सर्ग कर रहा हूं। अंत में यह प्रतिज्ञा की जाती है कि जब तक मैं अर्हत् भगवान् को नमस्कार करके कायोत्सर्ग सम्पन्न न करूं, तब तक स्थिरमुद्रा, मौन और शुभध्यान के द्वारा अपने शरीर का विसर्जन करता हूं।' . कायोत्सर्ग करते समय समपाद आसन में पंजों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखकर बाहु युगल को लटकाकर शरीर की प्रवृत्ति और परिकर्म का परित्याग किया जाता है। कायोत्सर्ग के पश्चात् नमस्कार महामंत्र के उच्चारण से कायोत्सर्ग को पूर्ण किया जाता है। शारीरिक दृष्टि से शक्ति का गोपन किए बिना जब तक खड़ा रह सके, तब तक खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना चाहिए उसके पश्चात् बैठकर तथा अधिक असामर्थ्य की स्थिति में लेटकर कायोत्सर्ग किया जा सकता है।' बलवान् होकर भी जो मुनि माया के वशीभूत होकर विधिवत् कायोत्सर्ग नहीं करता, उसके मायाप्रत्ययिक कर्म का बन्धन होता है तथा वह कायोत्सर्ग में क्लेश को प्राप्त होता है। कायोत्सर्ग के अपवाद कायोत्सर्ग में तीनों योगों की चंचलता का निरोध होता है लेकिन कुछ आवश्यक शारीरिक योगों में अपवाद रहता है१. कायोत्सर्ग में श्वास और प्रश्वास का निरोध नहीं होता क्योंकि श्वास-प्रश्वास के निरोध से सद्यः मौत हो सकती है अतः कायोत्सर्ग में यतनापूर्वक सूक्ष्म श्वासोच्छ्वास लिया जा सकता है। 2. खांसी, छींक और जम्भाई भी यतनापूर्वक की जाती है, जिससे भीतर की उष्ण वायु से बाहर के वायुकाय के जीवों का वध न हो। छींक आदि शारीरिक वेग रोकने से असमाधि तथा मरण तक संभव है। नियुक्तिकार के अनुसार मुंह के आगे हाथ लगाकर जम्भाई लेनी चाहिए, जिससे मच्छर आदि मुख में प्रवेश करके मर न जाएं। 1. आव 5/3 / 2. मूला 652 / 3. निभा 6134 / 4. आवचू 2 पृ. 250 / / 5. आवनि 1031/7 / 6. आवनि 1019 / 7. आवनि 1020 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy