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________________ 396 जीतकल्प सभाष्य 1194. आधाकर्म द्वार को संक्षेप में कहा गया। अब मैं प्रायश्चित्त-प्राप्ति, उसका दान तथा उसकी विशोधि के बारे में कहूंगा। 1195. आधाकर्म आहार-ग्रहण करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास होता है। औद्देशिक' आहार भी दो प्रकार का होता है-ओघ औद्देशिक और विभाग औद्देशिक। 1196, 1197. ओघ औद्देशिक आहार ग्रहण करने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका .. तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। विभाग औद्देशिक मूलतः तीन प्रकार का होता है -उद्देश', कृत और कर्म इन तीनों के चार-चार भेद होते हैं। वे चार भेद कैसे होते हैं, उसे मैं आगे गाथाओं में कहूंगा। 1198. उद्देश के चार भेद होते हैं-औद्देशिक, समुद्देशिक, आदेशिक और समादेशिक। इसी प्रकार कृत और कर्म के भी चार-चार भेद होते हैं। 1199. जितने भिक्षाचरों के संकल्प से आहार-पानी बनाया जाता है, वह उद्देश है। पाषंडियों (अन्य दर्शनी) को देने के लिए निर्मित आहार समुद्देश अथवा समुद्देशिक कहलाता है। श्रमणों के लिए निर्मित आहार आदेश तथा निर्ग्रन्थ के लिए निर्मित आहार समादेश कहलाता है। 1. निशीथ भाष्य में औद्देशिक के दो भेद अतिरिक्त मिलते हैं - १.यावन्तिका- कार्पटिक आदि से लेकर चाण्डाल पर्यन्त सबके उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन।' २.प्रगणिता-शाक्य, परिव्राजक आदि की जाति या नाम से गणना करके दी जाने वाली भिक्षा। औद्देशिक दोष . के विस्तार हेतु देखें पिनि भूमिका पृ. 65-67 / १.निभा 1472,1473 / 2. दिन का आधा भाग अर्थात् प्रथम दो प्रहर के काल तक खान-पान का त्याग करना पुरिमार्ध कहलाता है। 3. जीतकल्पभाष्य में विभाग औद्देशिक के मूलत: तीन भेद किए हैं-१. उद्देश 2. कृत और कर्म। फिर तीनों के चार-चार भेद प्राप्त हैं -उद्देश, समुद्देश, आदेश और समादेश। पिण्डनियुक्ति में विभाग औद्देशिक के मूलतः उद्देश, समुद्देश आदि चार भेद हैं फिर प्रत्येक के उद्दिष्ट, कृत और कर्म आदि तीन-तीन भेद किए हैं। यद्यपि दोनों में ही विभाग औद्देशिक के बारह भेद होते हैं, केवल व्याख्या-भेद या प्रकार-भेद के कारण ऐसा संभव हुआ है। १.पिनिमटी प.७७। 4. गृहस्थ के लिए निष्पन्न आहार, जो भिक्षाचरों को देने के लिए अलग रख दिया जाता है, वह उद्दिष्ट कहलाता १.पिनिमटी प.७७। 5. उद्धरित शाल्योदन, जो भिक्षादान हेतु करम्ब (दही-भात मिलाकर तैयार किया गया पदार्थ) आदि के रूप में तैयार किया जाता है, वह कृत कहलाता है।' १.पिनिमटी प.७७, पिंप्र 31 ; वंजणमीसाइकडं / 6. विवाह में बचे हुए मोदक के चूरे को अनेक भिक्षाचरों को देने हेतु गुड़पाक आदि से पुन: मोदक बनाने को कर्म कहा जाता है। पिण्डविशुद्धिप्रकरण में अग्नि से तापित करके पुनः संस्कारित करने को कर्म माना है। १.पिनिमटी प.७७। 2. पिंप्र 31; अग्गितवियाइ पुण कम्मं /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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