________________ अनुवाद-जी-३५ 395 1190. (आधाकर्म आहार, उससे स्पृष्ट अन्य पदार्थ, कल्पत्रय' से अप्रक्षालित पात्र में डाला हुआ आहार-) यह सारा अभोज्य है। अविधि-परिहार में गमन आदि के दोष तथा विधि-परिहार' में द्रव्य, काल, देश और भाव की पृच्छा करनी चाहिए। इस यतना में यदि छलना होती है तो ये दो दृष्टान्त हैं११९१. जैसे वान्त आदि अभोज्य यावत् सूर्योदय और चन्द्रोदय-दोनों उद्यान-इन सबके बारे में विस्तार से जानना चाहिए। 1192. जो मनुष्य अन्तःपुर की स्त्रियों को देखने के इच्छुक थे, उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई, फिर भी वे राजाज्ञा का भंग करने के कारण राजा से दंडित हुए। अन्तःपुर को देखने वाले जो अन्य पुरुष थे, उनको बिना दंडित किए मुक्त कर दिया गया क्योंकि वे राजाज्ञा का भंग करने वाले नहीं थे। आधाकर्म के विषय में इसी प्रकार यहां. समवतार करना चाहिए। 1193. जो साधु आधाकर्म का परिभोग करके उस अकरणीय स्थान का प्रतिक्रमण नहीं करता, वह बोड-मुंडित व्यक्ति संसार में वैसे ही व्यर्थ परिभ्रमण करता है, जैसे लुंचित-विलुंचित (पंख रहित) कपोत। १.तीन लेपों तक पूति होती है, इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि एक बर्तन में आधाकर्म भोजन पकाया। उसको किसी दूसरे बर्तन में निकालकर अंगुलि से साफ कर दिया, यह एक लेप है। इसी प्रकार तीन बार साफ करके पकाने तक वह आहार पूति कहलाता है। उसी बर्तन में चौथी बार पकाया गया आहार पूति .. : नहीं होता। अथवा उसी बर्तन में कल्पत्रय-तीन बार प्रक्षालन किए बिना शुद्ध आहार पकाया जाए तो वह पूति - आहार है। तीन बार धोने पर उस पात्र में पकाया गया आहार शुद्ध होता है। .१.पिनिमटी प.८७।। २.विधि-परिहार एवं अविधि-परिहार की विस्तृत व्याख्या हेतु देखें पिनि 89/1-90/4 / ३.कथा के विस्तार हेतु देखें परि 2, कथा सं. 36 / ४.पिण्डनियुक्ति में अभोज्य की विस्तार से व्याख्या प्राप्त है। नियुक्तिकार ने उपमा द्वारा इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि जिस प्रकार वेद आदि धार्मिक ग्रंथों में भेड़नी और ऊंटनी का दूध, लहसुन, प्याज, मदिरा और गोमांसये वस्तुएं अखाद्य हैं, उसी प्रकार जिनशासन में भी आधाकर्म भोजन अखाद्य और अपेय है। जैसे अच्छे तिलचूर्ण से निष्पन्न उपहार, जिस पर नारियल रखा हुआ हो, वह अच्छा आहार भी अशुचि से स्पृष्ट होने पर अभोज्य हो जाता है, वैसे ही आधाकर्म के अवयव से स्पृष्ट शुद्ध आहार भी अभोज्य हो जाता है। प्रकारान्तर से अभोज्य की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जिस पात्र में आधाकर्म आहार लिया, उस भाजन से आधाकर्म निकाल दिया, फिर भी यदि कल्पत्रय से प्रक्षालित नहीं किया तो उसमें डाला हुआ शुद्ध आहार भी अभोज्य हो जाता है। १.पिनि 86/2-88 / ५.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2. कथा सं. 37 / 6. आधाकर्म दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि भूमिका पृ.५०-६५ /