________________ 394 जीतकल्प सभाष्य दिया गया। 1182. 'चार'-इस द्वार में भिक्षा ग्रहण सम्बन्धी अतिक्रम आदि का मैंने वर्णन किया है। अब आज्ञा आदि 'चार' इस द्वार का वर्णन करूंगा। 1183. जो अशन आदि में लुब्ध होकर आधाकर्म आहार ग्रहण करता है, वह सभी तीर्थंकरों की आज्ञा का अतिक्रमण करता है। जो आज्ञा का अतिक्रमण करता है, वह शेष अनुष्ठानों का अनुपालन किसकी आज्ञा से करता है? 1184. एक मुनि अकार्य करता है, (आधाकर्म का परिभोग करता है) तो दूसरे मुनि भी उसके विश्वास के आधार पर वही कार्य करने लग जाते हैं। इस प्रकार साताबहुल मुनियों की परम्परा से संयम और तप का विच्छेद होने से तीर्थ का विच्छेद होने लगता है। (यह अनवस्था दोष का उदाहरण है।) 1185. जो मुनि यथावाद-आगमोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान नहीं करता, उससे बड़ा अन्य कौन मिथ्यादृष्टि हो सकता है? क्योंकि वह दूसरों में आशंका पैदा कर मिथ्यात्व की परम्परा को आगे बढ़ाता है। 1186. विराधना दो प्रकार की होती है-संयम-विराधना और आत्म-विराधना। आधाकर्म आहार ग्रहण करने के प्रसंग में संयम-विराधना होती है। 1187. आधाकर्म आहार ग्रहण करता हुआ मुनि उस आहार के ग्रहण प्रसंग' को बढ़ावा देता है। वह अपनी तथा दूसरों की आसक्ति को बढ़ाता है। वह भिन्न दंष्ट्रा-अत्यन्त रस लम्पट मुनि सर्वथा निर्दयी होकर सजीव पदार्थों को भी नहीं छोड़ता। 1188. जो मुनि प्रचुर मात्रा में स्निग्ध आहार करता है, वह रुग्ण हो जाता है। रोगग्रस्त मुनि के सूत्र और अर्थ की हानि होती है। रोग-चिकित्सा में षट्काय की विराधना होती है। प्रतिचारकों के भी सूत्र और अर्थ की हानि होती है। परिचर्या के अभाव में रोगी मुनि स्वयं क्लेश को प्राप्त होता है तथा परिचारकों के मन में भी क्लेश उत्पन्न करता है। 1189. पाक आदि क्रिया से आधाकर्म आहार भारी कर्मबंधन का कारण होता है, यह आत्मविराधना है अतः आधाकर्म आहार का भोग नहीं करना चाहिए। 1. जैसे हाथी छिन्न टंक वाले पर्वत पर एक, दो या तीन पैर ऊपर करने में समर्थ हो सकता है लेकिन चारों पैर ऊपर करने पर वह निश्चित रूप से भूमि पर गिर जाएगा, वैसे ही अतिचार दोष तक साधु विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से स्वयं को शद्ध करने में समर्थ हो सकता है किन्तु अनाचार होने पर संयम का नाश हो जाता है। टीकाकार कहते हैं कि यद्यपि कथानक के दृष्टान्त में हाथी के द्वारा चारों पैर ऊपर नहीं उठाए गए लेकिन दार्टान्तिक रूप से बात को सिद्ध करने हेतु यह प्रतिपादन किया गया है। १.पिनिमटी प.६८। 2. मुनि यदि एक बार आधाकर्म आहार ग्रहण कर लेता है तो मनोज्ञ रस की लोलुपता से वह बार-बार उसे ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है।