________________ अनुवाद-जी-३५ 393 1170. (शिष्य प्रश्न पूछता है) छाया बढ़ती है, घटती है। वृक्ष की बढ़ती हुई छाया अनेक घरों का स्पर्श करती है, इससे सारे घर और आहार पूति दोष से दुष्ट होने के कारण कल्पनीय नहीं होंगे। (यह बात आगमोक्त नहीं है, आचार्य कहते हैं-) सूर्य सुविहित मुनियों के लिए छाया का प्रवर्तन नहीं करता, वह स्वतः होती है इसलिए छाया आधाकर्मिकी नहीं होती। 1171. आकाश में यत्र-तत्र विरल मेघों के घूमने पर उनसे छाया मिट जाती है तथा दिन में पुनः छाया हो जाती है। सूर्य के मेघाच्छन्न हो जाने पर उस वृक्ष के अधःस्तन प्रदेश का आसेवन कल्पता है परन्तु आतप में उसका विवर्जन करना चाहिए। (यह तथ्य न आगम सम्मत है और न पूर्वपुरुषों द्वारा आचीर्ण इसलिए असत् है।) 1172. इस प्रकार छाया संबंधी यह दोष संभव नहीं है, यह आधाकर्म विहीन है। इतना होने पर भी जो अति दयालु पुरुष उसका विवर्जन करते हैं तो वे दोषी नहीं हैं। 1173. स्वपक्ष और परपक्ष का मैंने संक्षेप में वर्णन कर दिया। अब 'चार' इस द्वार को संक्षेप में कहूंगा। 1174. अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार-इन चारों को आधाकर्म में यथाक्रम से जोड़ना चाहिए। 1975. आधाकर्म का इन चारों में होना कैसे संभव है? यहां भरत का उदाहरण है। ब्राह्मणों की पूजा देखकर श्राद्ध भरत के पास गए। 1176. उत्सव में श्रावकों की श्रद्धा उत्पन्न हुई कि हम भी साधुओं के लिए विशेष रूप से भोजन तैयार करेंगे। 1177. कोई नया श्रावक मुनि के लिए निष्पादित शालि, घृत, गुड़, गोरस तथा अचित्त किए हुए वल्ली फलों का दान देने के लिए मुनि को निमंत्रण देता है। 1178-80. आधाकर्म के आमंत्रण को स्वीकृत करना अथवा शालि आदि को ग्रहण करने के सम्बन्ध में अशुभ चिन्तन अतिक्रम है। उसको लाने के लिए पैर उठाना व्यतिक्रम, उसको पात्र में ग्रहण करना अतिचार तथा उसको खाने के लिए मुंह में रखना अनाचार दोष है। कुछ आचार्य उसको निगलने पर अनाचार दोष मानते हैं। इसका क्या कारण है, यह पूछने पर वे बताते हैं कि मुख में कवल रखने पर कदाचित् पुनः श्लेष्म पात्र में निकाला जा सकता है फिर वह अनाचार नहीं माना जाएगा अतः निगलने पर 'अनाचार दोष होता है क्योंकि वहां से पुनः लौटना संभव नहीं होता। 1181. शेष एक, दो और तीन अर्थात् अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार से पुनः स्वस्थान में लौटा जा सकता है। जैसे (नुपूरहारिका कथानक' में) तीन पैरों से आकाश में स्थित हाथी को पुनः मूलस्थान में स्थित कर 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं. 35 /