________________ 220 जीतकल्प सभाष्य 2150. परिहारिगा वि छम्मासे, अणुपरिहारिगा वि छम्मासे। कप्पट्ठितो वि छम्मासे, एते अट्ठारस तु मासा' // 2151. अणुपरिहारिगा चेव, जे य ते परिहारिगा। अण्णमण्णेसु ठाणेसु, अविरुद्धा भवंति / ते // 2152. गतेहिं छहिँ मासेहिं, णिविट्ठा भवंति ते। अणुपरिहारिगा पच्छा, परिहारं परिहरंति तु // 2153. गतेहिं छहिं मासेहिं, णिव्विट्ठा भवंति ते। वहती कप्पट्ठितो पच्छा, परिहारं अहाविहिं॥ 2154. एतेसिं जे वहंती, णिव्विसमाणा हवंति ते नियमा। जेहिं बूढं पुण तेसिं, हवंति- णिव्विट्ठकाइया // 2155. अट्ठारसेहिं मासेहिं, कप्पो होति समाणितो। मूलट्ठवणा एसा, समासेण वियाहिता // 2156. एवं समाणिए कप्पे, जे तेसिं जिणकप्पिया। तमेव कप्पं ऊणा वि, पालए जावजीवियं // 2157. अट्ठारसेहिं पुण्णेहि, मासेहिं थेरकप्पिया। पुणों गच्छं णियच्छंति, एसा तेसिं जहाविधी // 2158. ततिय चउत्था कप्पा, समोयरंते० तु बितियकप्पम्मि। पंचमछट्ठठितीसुं, हेट्ठिल्लाणं समोतारे // 2159. अहुणा जिणकप्पठिती, सा पुव्वं मासकप्पसुत्तम्मि। भणिता स च्चेव इहं, नवरमसुण्णत्थ भणित'२ इमं // 1.66474 / २.बृ 6475 / 3. गाथा का उत्तरार्ध बृ (6476) में इस प्रकार है ततो पच्छा ववहारं, पट्ठवंति अणुपरिहारिया। 4. तहाविहं (बृ 6477) / 5. गाथा के उत्तरार्ध में अनुष्टुप छंद का प्रयोग है। छंद के अनुसार 'हवंति' के स्थान पर होंति' पाठ होना चाहिए। 6. गाथा का उत्तरार्ध बृ (6478) में इस प्रकार है- मूलट्ठवणाएँ समं, छम्मासा तु अणूणगा। 7. बृ 6479 / 8. पुण (मु, ब)। 9. अहाठिती (बृ 6480) / 10. रंति (बृ 6481) / 11. इस गाथा के बाद प्रतियों में निम्न गद्यांश मिलता है सामा छेदो णिव्विस, णिव्विट्र एते जिण-थेरे ओयति। 12. भणति (पा, ब)।