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________________ 618 जीतकल्प सभाष्य आचार्य ने किसी अन्य शिष्य को आचार्य स्थापित करके अन्य गण में अनशन स्वीकार कर लिया। सरसों की भाजी की भांति कथानक का विस्तार समझना चाहिए। 62. शिखरिणी __एक साधु को उत्कृष्ट शिखरिणी-श्रीखण्ड की प्राप्ति हुई। उसने गुरु को शिखरिणी निवेदित की तथा खाने के लिए निमंत्रण भी दिया। गुरु ने सारी शिखरिणी का पान कर लिया। यह देखकर शिष्य के मन में प्रद्वेष उत्पन्न हो गया। शिष्य ने गुरु को मारने के लिए डंडा उठाया। आचार्य ने क्षमायाचना की लेकिन उसका रोष शान्त नहीं हुआ। गुरु ने अपने गण में ही भक्त प्रत्याख्यान अनशन स्वीकार करके समाधिमरण को प्राप्त किया। आचार्य के कालगत होने पर द्वेषवश उसने गुरु के शरीर को डंडे से खूब पीटा, तब उसका क्रोध शान्त हुआ। 63. उदायिमारक उदायी राजा कोणिक का पुत्र था। उसने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् पाटलिपुत्र नगर को बसाया। जैनधर्म के प्रति उसकी दृढ़ आस्था थी। वह पर्व तिथियों में पौषध करके धर्म-चिन्तन में समय व्यतीत करता था। धार्मिक होने के साथ-साथ वह अत्यन्त पराक्रमी भी था। उसने अपने तेज से सभी राजाओं को अपने अधीन कर लिया था। सभी राजा यही चिन्तन करते थे कि जब तक उदायी राजा जीवित. है, हम स्वतंत्रता की सांस नहीं ले सकते। एक बार किसी राजा ने कोई अपराध कर लिया। क्रोधित होकर उदायी ने उसका राज्य छीन लिया। राजा वहां से पलायन करके अन्यत्र कहीं जा रहा था लेकिन मार्ग में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसका पुत्र घूमता हुआ उज्जयिनी नगरी में आ गया और राजा के पास रहने लगा। उज्जयिनी का राजा भी उदायी से नाराज था अतः दोनों ने मिलकर उदायी को मारने का षड़यन्त्र रचा। राजपुत्र उज्जयिनी से पाटलिपुत्र आया और उदायी का सेवक बनकर रहने लगा। उदायी को यह ज्ञात नहीं था कि यह उसके शत्रु राजा का पुत्र है। वह राजा को मारने के लिए अवसर की खोज करने लगा लेकिन उसे कोई छिद्र नहीं मिला। राजकुमार ने जैन मुनियों को उदायी के प्रासाद में बिना रोक-टोक के आते-जाते देखा। उसके मन में भी राजप्रासाद में जाने की इच्छा जागृत हुई। वह एक जैन आचार्य के पास दीक्षित हो गया। वह साधु-आचार का पूर्णतः पालन करने लगा। उसकी आचारनिष्ठा और सेवाभावना से आचार्य अत्यन्त प्रसन्न थे। राजा उदायी प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को पौषध करते थे। उस समय आचार्य उनको धर्मकथा सुनाते थे। एक बार पौषध के दिन आचार्य सायंकाल उदायी के निवास स्थान पर पहुंचे। वह प्रव्रजित राजपुत्र भी आचार्य के उपकरण लेकर उनके साथ गया। उदायी को मारने की इच्छा से उसने अपने पास तीखी कैंची छिपाकर रख ली। वह भी उदायी के समीप आचार्य के साथ बैठ गया। आचार्य 1. बृहत्कल्पभाष्य की टीका में कथानक में कुछ अंतर है। उलूकाक्ष शब्द का प्रयोग आचार्य ने नहीं अपितु किसी साधु ने किया था। उसने अपने गण में ही भक्तप्रत्याख्यान स्वीकार किया। 2. जीभा 2487, 2488, बृभा 4991 टी पृ. 1334 / 3. जीभा 2489, बृभा 4992, 4993 टी पृ. 1334 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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