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________________ अनुवाद-जी-५५,५६ 449 करने पर पुरिमार्ध, दूष्य पंचक की प्रतिलेखना न करने पर एकासन तप की प्राप्ति होती है। त्रसकाय के वध में जिस प्रायश्चित्त की प्राप्ति विहित है, वह प्राप्त होता है। 1768. कुश आदि अशुषिर हैं। इनका अकारण परिभोग करने पर उसकी शोधि निर्विगय तप से होती है। शेष पंचविध पणग' के पुनः पांच-पांच भेद होते हैं। 1769. पुस्तक पंचक, तृण पंचक, दूष्य पंचक-इनकी सम्यक् प्रतिलेखना न करने पर अथवा दूष्य पंचक और चर्म पंचक की प्रतिलेखना न करने पर पुरिमार्ध तप से शोधि होती है। 1770. पंचविध पुस्तक' के नाम इस प्रकार हैं-१. गंडी 2. कच्छपी 3. मुष्टि 4. छिवाडी 5. संपुटक। पंचविध तृण ये हैं-शालि, ब्रीहि, कोद्रव, रालक, जंगली घास / 1771,1772. अप्रतिलेखित दूष्य पंचविध हैं-१. तूली 2. अंग-उपधान 3. गंड-उपधान 4. आलिंगिणी 5. मसूरक। दुष्प्रतिलेखित पंचविध दूष्य का दूसरा पंचक इस प्रकार हैं-१. पल्हवि 2. कोयवी-रुई से भरा हुआ कपड़ा 3. प्रावारक-कम्बल 4. नवतक-ऊन का बना हुआ आस्तरण विशेष 5. दाढ़ियाली। १.पंचविध पणग इस प्रकार हैं-पुस्तक पंचक, तृण पंचक, चर्म पंचक और द्विविध दूष्य पंचक-दुष्प्रतिलेखित दृष्यपंचक तथा अप्रतिलेखित दृष्यपंचक। २.पुस्तक पंचक की व्याख्या इस प्रकार है१. गंडी-मोटाई और चौड़ाई में तुल्य तथा चोकोर पुस्तक। 2. कच्छपी-अंत में पतली, मध्य में विस्तीर्ण तथा कम मोटाई वाली पुस्तक। 3. मुष्टि-चार अंगुल लंबी और वृत्ताकार अथवा चार अंगुल लम्बी चतुष्कोण पुस्तक। 4. छिवाडी-लम्बी या छोटी, विस्तीर्ण और कम मोटाई वाली पुस्तक अथवा पतले पन्ने वाली ऊंची पुस्तक। 5. संपुटफलक-दोनों ओर जिल्द बंधी पुस्तक। आचार्य महाप्रज्ञ ने 'पुस्तक' शब्द पर भाष्य लिखते हुए कहा है कि भाषाशास्त्रीय दृष्टि से 'पुस्त' शब्द "पहलवी' भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है-चमड़ा। चमड़े में चित्र आदि बनाए जाते थे। उसमें भी ग्रंथ लिखे जाते थे इसलिए उसका नाम पुस्तक हो गया। हरिभद्रसूरि ने पुस्तकर्म का अर्थ वस्त्रनिर्मित पुतली, वर्तिका से लिखित पुस्तक तथा ताड़पत्रीय प्रति किया है। बृहत्कल्पभाष्य में पुस्तकपंचक रखने में होने वाली यतना को चार दृष्टान्तों से समझाया है। १.निभा 4000 चू पृ. 320, 321; दीहो बाहल्लपुहत्तेण तुल्लो चउरंसो गंडीपोत्थगो।अंते तणुओ, मझे पिहुलो, अप्पबाहल्लो कच्छवी। चउरंगुलदीहो वृत्ताकृती मुट्ठीपोत्थगो। अहवा चउरंगुलदीहो चउरस्सो मुट्ठिपोत्थगो। दुमाइफलगसंपुडं दीहो हस्सो वा पिहुलो अप्पबाहल्लो छेवाडी।अहवा तणुपत्तेहिं उस्सीओ छेवाडी। 2. अनु 1/10 का टिप्पण पृ.१९। 3. बृभा 3827-30 / ३.तूली-रुई से भरा हुआ मोटा बिछौना, उपधान-तकिया, गंडउपधान-कपोल पर लगाया जाने वाला तकिया, आलिंगिणी-शरीर प्रमाण उपधान, मसूरक-वस्त्र या चर्म का वृत्ताकार आसन। ४.जीतकल्प चूर्णि एवं बृहत्कल्पभाष्य में दुष्प्रतिलेखित दूष्य पंचक के नामों में कुछ अंतर है-१. कोयवी 2. प्रावारक 3. पूरी-स्थूल सणमय डोरी से निष्पन्न वस्त्र 4. दाढ़ियाली 5. विराली-द्विसर वाली सूत्रपटी। - 1. जीचू पृ. 19, बृभा 3823 टी पृ. 1054 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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