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________________ 448 जीतकल्प सभाष्य" 1757, 1758. एक कायोत्सर्ग गुरु से पहले स्वयं पूरा करे तो निर्विगय, दो कायोत्सर्ग पूरा करने पर पुरिमार्ध, तीन कायोत्सर्ग पूरा करने पर एकासन तथा सभी कायोत्सर्ग गुरु से पहले पूरे करने पर आयम्बिल तप से शोधि होती है। कायोत्सर्ग भग्न होने पर तथा वंदना न करने पर भी उसकी शोधि इसी प्रकार होती है। 53. एक बार कायोत्सर्ग न करने पर पुरिमार्ध, दो बार न करने पर एकासन, तीन बार न करने पर .. आयम्बिल तथा सम्पूर्ण आवश्यक न करने पर उपवास प्रायश्चित्त से शोधि होती है। रात्रि में व्युत्सर्ग करने हेतु पहले भूमि की प्रतिलेखना न करने पर तथा दिन में सोने पर उसकी शोधि उपवास प्रायश्चित्त से होती है। 1759. एक बार कायोत्सर्ग न करने पर उसकी शोधि पुरिमार्ध तप से होती है। दो बार कायोत्सर्ग न करने पर एकासन तथा तीन बार न करने पर उसकी शोधि आयम्बिल तप से होती है। 1760. सम्पूर्ण आवश्यक न करने पर तथा कायोत्सर्ग की भांति वंदना न करने पर उसकी शोधि उपवास तप से होती है। 1761. गाथा के पश्चार्द्ध में रात्रि में व्युत्सर्ग करने के लिए पहले दिन में स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना न करने पर साधु की शोधि उपवास तप से होती है। 1762. बिना कारण दिन में सोने पर साधु की शोधि उपवास तप से होती है। क्रोध के वशीभूत होना तथा कर्कोलक-सुगंधित द्रव्य विशेष के प्रयोग के बारे में अब वर्णन करूंगा। . 54. बहुदैवसिक क्रोध, मदिरा और कर्कोलक-सुगंधित वस्तु आदि का उपभोग करने पर उपवास तप का प्रायश्चित्त तथा लहसुन आदि का प्रयोग और गाय आदि के बछड़े को खोलने पर पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। 1763, 1764. पक्ष के अतिक्रान्त होने पर बहुत दिनों तक रहने वाला क्रोध बहुदैवसिक कहलाता है अथवा चातुर्मास के अतिरिक्त बहुत दिनों तक रहने वाला क्रोध भी बहुदैवसिक होता है। उसकी शोधि उपवास तप से होती है। आसव को विकट कहते हैं। उसको ग्रहण करने पर उपवास तप से उसकी शोधि होती है। 1765, 1766. कर्कोलक आदि सुगंधित वस्तु का सेवन करने पर मुनि की उपवास तप से शोधि होती है। आदि शब्द के ग्रहण से सुपारी, जायफल, लवंग तथा तम्बोल आदि ग्रहण करने पर प्रत्येक की शोधि उपवास तप से होती है। अचित्त लहसुन को ग्रहण करने पर तथा सूत्र (जीसू 54) में आए 'आदि' शब्द से पलंडु-प्याज ग्रहण करने पर पुरिमार्ध तप से शोधि होती है। 1767. बछड़े को बंधन-मुक्त करने पर उसकी शोधि पुरिमार्थ तप से होती है। सूत्र (जीसू 54) में आए आदि शब्द से हंस, मयूर आदि के बच्चों को भी ग्रहण करना चाहिए। 55. छिद्र रहित तृण आदि का सेवन करने पर निर्विगय, शेष पांच प्रकार के पणग का उपयोग १.जीतकल्प चूर्णि के अनुसार पुस्तक पंचक ग्रहण करने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा दूसरे चूर्णिकार के अभिमत से पुस्तक पंचक ग्रहण करने में भी परिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। . १.जीचूप. 19; पोत्थयपणगग्गहणे आयाम....बिइयचुन्निकारमएण पोत्थयपणगे वि पुरिमड़े।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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