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________________ 150 जीतकल्प सभाष्य एक मास के पश्चात् वे सब एक साथ भोजन कर सकते हैं। जो एक मासिक परिहार तप वाला है, वह एक मास और पांच दिन पूरा होने पर साथ में भोजन कर सकता है। इस प्रकार पांच-पांच दिन की वृद्धि से संभोज वर्जित है। पांच, दस, यावत् एक मास के अतिरिक्त दिनों में आलापन आदि नौ पद आपस में किए जा सकते हैं। ___ एक मास अतिरिक्त संभोज क्यों नहीं किया जाता, इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे कुथित मद्य आदि से दुर्गन्धित पात्र में जब तक गंध आती है, तब तक उसमें क्षीर आदि नहीं डाला जाता, वैसे ही दुश्चरित्र की दुर्गंध से भावित उसके साथ भोजन नहीं किया जाता। इस अतिरिक्त मास के दो नाम हैं-१. पूतिनिर्वलन मास 2. प्रमोदमास। यह मास दुर्गंध का नाश करने वाला है अतः पूतिनिर्वलन मास नाम है तथा संभाषण आदि करने से प्रसन्नता रहती है अतः इसका नाम प्रमोद मास भी है। पृथक् आहार करने का एक कारण भाष्यकार यह बतलाते हैं कि उसका शरीर तप से जर्जरित हो जाता है, जब तक वह पृथक् आहार करता है, तब तक सभी साधु करुणावश उसे बलवर्धक आहार देते हैं, इससे वह शीघ्र ही बाह्य और आभ्यन्तर तप के योग्य हो जाता है। इस प्रकार इन दस स्थानों से गच्छ उसका तथा वह गच्छ का परिहार कर देता है। परिहार तप प्रायश्चित्त कर्ता एक क्षेत्र अथवा एक उपाश्रय में रह सकता है लेकिन बिना कारण इन दस स्थानों का यदि परिहार नहीं करता है तो प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आज्ञा भंग आदि दोष होते हैं, प्रमत्त देवता उसे छल सकता है अथवा आपस में टोकने पर कलह की संभावना रहती है। आलापन से संघाटक तक आठ पदों का व्यवहार करने पर गच्छगत साधु को लघुमास, भक्तपान देने पर चतुर्लघु तथा सहभोजन करने पर चार अनुद्घात मास-गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आलापन से संघाटक तक आठ पदों का व्यवहार करने पर पारिहारिक को गुरुमास, भक्तपान देने तथा सहभोजन करने पर चार अनुद्घात मास अर्थात् चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। कल्पस्थित और अनुपारिहारिक का सम्बन्ध आचार्य अथवा आचार्य के द्वारा नियुक्त नियमतः गीतार्थ साधु, जो आचार्य के समान व्यवहार करता है, वह कल्पस्थित कहलाता है। यदि पारिहारिक कृतिकर्म करता है तो कल्पस्थित आचार्य उसे 1. व्यभा 1339; दो मास वाला बाद में दस दिन तक सहभोजन नहीं कर सकता। 2. व्यभा 1341, 1342 / ३.बृभा 5601 / 4. जीभा 2443 / 5. जीभा 2444 / 6. निचू भा 3 पृ. 65; आयरिओ, आयरियणिउत्तो वा णियमा गीतत्थो तस्स आयरियाण पदाणुपालगो कप्पट्ठितो भण्णति।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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