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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 151 स्वीकार करते हैं। उसे प्रत्याख्यान करवाते हैं। सूत्रार्थ विषयक पूछने पर आचार्य उसकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। पारिहारिक गुरु के आने पर खड़ा होता है। गुरु यदि उसके शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में पूछते हैं तो वह उसका प्रत्युत्तर देता है। ___ जो पारिहारिक के चलने पर सर्वत्र उसका अनुगमन करता है, वह अनुपारिहारिक कहलाता है। आचार्य उसी शिष्य को अनुपारिहारिक के रूप में स्थापित करते हैं, जो पहले परिहार तप स्वीकार कर चुका हो। उसके अभाव में दृढ़ संहनन वाले किसी गीतार्थ मुनि को अनुपारिहारिक स्थापित करते हैं।' पारिहारिक भिक्षार्थ जाता है तो अनुपारिहारिक श्वान आदि से उसकी रक्षा करता है। बृहत्कल्पभाष्य में इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा है। सामान्यतः अनुपारिहारिक पारिहारिक को भक्त- पान आदि लाकर नहीं देते हैं, न ही आलापन आदि करते हैं लेकिन कारण होने पर गोदृष्टान्त की भांति उसका सहयोग करते हैं। जैसे नवप्रसूता गाय उठने-बैठने में समर्थ नहीं रहती, उस समय ग्वाला गाय को उठाकर चरने के लिए अरण्य में ले जाता है। जो गाय चलने में समर्थ नहीं होती, उसके लिए घर पर चारा लाकर देता है। इसी प्रकार पारिहारिक भी उत्थान आदि करने में समर्थ नहीं होता तो अनुपारिहारिक सारा कार्य करता है।' उग्र तप आदि करने से जब पारिहारिक कृश अथवा दुर्बल शरीर वाला हो जाता है, उत्थान आदि करने में समर्थ नहीं रहता तो वह अनुपारिहारिक की सहायता लेता है। वह उसको कहता है, मुझे उठाओ, बिठाओ, भिक्षा करो, भंडक की प्रतिलेखना करो आदि। ऐसा कहने पर वह शीघ्र ही मौनभाव से कुपित प्रिय बांधव की भांति उसकी सारी क्रियाएं सम्पन्न करता है। यदि भिक्षार्थ गया हुआ पारिहारिक भिक्षा ग्रहण करने में असमर्थ, क्लान्त या मूर्च्छित हो जाता है तो अनुपारिहारिक भिक्षा ग्रहण करता है। यदि जाने में असमर्थ है तो अनुपारिहारिक अकेला भिक्षार्थ जाता है। यदि वह उपकरण आदि उठाने में समर्थ नहीं है तो अनुपारिहारिक उसकी प्रतिलेखना आदि भी कर देता है। जब तक वह पुनः स्वस्थ नहीं हो जाता, उसकी अग्लान भाव से सेवा करता है। ग्लानत्व की स्थिति में परिकर्म यदि कल्पस्थित, पारिहारिक और अनुपारिहारिक-ये तीनों ग्लान हो जाएं तो गच्छगत साधु पारिहारिक के पात्र में भिक्षा लाकर कल्पस्थित को देते हैं। कल्पस्थित वह भिक्षापात्र अनुपारिहारिक को देता है, वह उसे पारिहारिक को देता है। यदि गच्छवासी साधुओं के द्वारा देने पर भी कल्पस्थित और 1. जीभा 2445 / 2. जीभा 2439 / 3. बृभा 5609 टी पृ. 1484 / / 4. जीभा 2455, 2456, व्यभा 554 / 5. कसू 4/27, 28 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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