________________ 152 जीतकल्प सभाष्य अनुपारिहारिक वहां नहीं जाते हैं तो साधु स्वयं पारिहारिक को वह भिक्षा-पात्र दे देते हैं। ___ मदन कोद्रव आदि खाने अथवा महामारी से संघगत साधु ग्लान हो जाएं अथवा शत्रु के द्वारा विष दे दिया जाए अथवा अवमौदर्य हो तो पारिहारिक मुनि गच्छवासी साधुओं के पात्र में आहार लाकर अनुपारिहारिक को देता है, अनुपारिहारिक कल्पस्थित को देता है फिर वह गच्छवासी साधुओं को वह आहार देता है। यदि आचार्य की सेवा करने वाला कोई साधु नहीं होता तो पारिहारिक यतनापूर्वक उनकी सेवा करता है। वह आचार्य के पात्र में भिक्षा लाकर अनुपारिहारिक को देता है। अनुपारिहारिक कल्पस्थित को देता है तथा वह उस आहार को संघ के आचार्य को देता है। यदि गच्छ के साधु आगाढ़ योग में संलग्न हों, उस समय यदि वाचना देने वाला उपाध्याय ग्लान हो जाए या कालगत हो जाए तो उस समय पारिहारिक अनुपारिहारिक या कल्पस्थित वाचना दे सकता है। पारिहारिक की आहार एवं भिक्षा सम्बन्धी मर्यादा ___मार्ग में भिक्षा करने के सम्बन्ध में भी भाष्यकार ने विशद चिन्तन किया है। विहार करते हुए पारिहारिक को छोटा ग्राम प्राप्त हो जाए, उस समय तक यदि संघगत साधु वहां नहीं पहुंचे हैं तो वह ग्राम पारिहारिक की भिक्षा हेतु स्थापित कर दिया जाए। यदि ग्राम दूर हो और भिक्षा-काल का अतिक्रमण हो रहा हो तो उसी ग्राम का आधा भाग पारिहारिक के लिए तथा शेष आधा गांव अन्य गच्छगत साधुओं की भिक्षा के लिए रख दिया जाए। यदि गच्छगत साधुओं को आहार पूरा न मिले तो पारिहारिक की भिक्षा के पश्चात् गच्छगत साधु पूरे गांव में भिक्षा कर सकते हैं। यदि एक गांव में ही प्रवास कर रहे हों तो भी आधे-आधे गांव में गण के साधु और पारिहारिक भिक्षा करते हैं।' ___सामान्यतः पारिहारिक आहार का दान-अनुप्रदान नहीं करता लेकिन आचार्य यदि उसे साधुओं को आहार-वितरण की अनुज्ञा दें तो वह आहार-वितरण कर सकता है। आचार्य उसे निम्न कारणों से आहार-वितरण की आज्ञा देते हैं - * परिहारी का शरीर तप से शोषित होता है। आहार-वितरण करने से विगय से खरंटित हाथ तथा शेष बचा हुआ आहार वह खा सके। * आहार परिमित हो और परिहारी यदि आहार-वितरण में कुशल हो। * अनेक प्रकार का प्रचुर आहार मिलने पर अगीतार्थ के व्यामोह की निवृत्ति हेतु। पारिहारिक गुरु की आज्ञा प्राप्त करके घृत आदि विकृति का सेवन कर सकता है। यदि वह गुरु 3. बृभा 5616 टी पृ. 1486 / 1. बृभा 5615 टी पृ. 1486, निचू 3 पृ. 67 / 2. बृभा 5614 टी पृ. 1485, 1486 /