________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 153 की आज्ञा प्राप्त नहीं करता है तो आहार-वितरण के बाद विगय से संसृष्ट हाथ दूसरा साधु चाटकर साफ करता है अथवा वह उस लिप्त हाथ को दीवार या काष्ठ से साफ करता है। गुरु की अनुज्ञा के बिना स्वयं चाटकर साफ करता है तो लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आचार्य की अनुज्ञा से वह विकृति से लिप्त हाथ को चाट सकता है अथवा शेष बचे हुए आहार को भी खा सकता है, जैसे रसोइया बचे हुए भोजन का मालिक की आज्ञा से परिभोग करता है। भाष्यकार के अनुसार यह पारिहारिक की आचार मर्यादा है कि शक्तिसंवर्धन के लिए वह ऐसा कर सकता है। पारिहारिक के प्रति आचार्य की सेवा कल्पस्थित आचार्य पारिहारिक की तीन रूपों में सेवा करते हैं -१.अनुशिष्टि 2. उपालम्भ और 3. उपग्रह। अनुशिष्टि के माध्यम से वे पारिहारिक को प्रेरणा देते हैं कि अपराध होने पर दण्ड मिलना संसार में सुलभ है। तुम यह मत सोचो कि मुझे यह प्रायश्चित्त मिला है तो मैं दण्डित या तिरस्कृत हुआ हूं। यह प्रायश्चित्त तुम्हारे संसार का उद्धार करने वाला है। तुम्हारी आत्मा अतिचार दोष से मलिन है, इस प्रायश्चित्त से वह विशुद्ध हो जाएगी। उपालम्भ स्वरूप वे पारिहारिक को कहते हैं कि तुमने स्वयं ने यह प्रतिसेवना की है इसलिए तुमको यह प्रायश्चित्त दिया गया है। प्रायश्चित्त का वहन न करने से तुम इस भव में भले ही मुक्त हो जाओ लेकिन परलोक में दण्ड-मुक्त नहीं हो सकते। आचार्य पारिहारिक का द्रव्य और भाव-दो प्रकार से उपग्रह करते हैं। पारिहारिक और अनुपारिहारिक दोनों ग्लान या असमर्थ हो जाते हैं तो आचार्य भक्तपान लाते हैं, यह द्रव्यत: उपग्रह है तथा उसे सूत्रार्थ अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हेतु मार्गदर्शन देते हैं, यह भावतः उपग्रह है। परिहारी और अपरिहारी की पात्र सम्बन्धी मर्यादा * परिहारतप करने वाले के पात्र सम्बन्धी मर्यादा का भी व्याख्या-साहित्य में वर्णन मिलता है। परिहार तप प्रायश्चित्त वहनकर्ता पात्र लेकर स्वयं की भिक्षा के लिए जा रहा हो, उस समय यदि आचार्य कह दें कि मेरे लिए भी भिक्षा ला देना तो वह परिहारी अपने पात्र में आचार्य के लिए भिक्षा ला सकता है लेकिन अपरिहारी आचार्य परिहारी के पात्र में अशन-पान का प्रयोग नहीं कर सकते। वे अपने पात्र में वह 'आहार लेकर खा-पी सकते हैं। ... यदि परिहारी भिक्षु विशेष कारण में स्थविर (आचार्य) के लिए भिक्षार्थ जाए, उस समय यदि आचार्य कहे कि तुम अपने लिए भी आहार लेकर आ जाना। ऐसा कहने पर परिहारी स्वयं के लिए भी साथ 1. व्यसू 2/28, व्यभा 1344-48 / २.व्यभा 560-65 /