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________________ 154 जीतकल्प सभाष्य में भिक्षा ला सकता है। पारिहारिक भी अपरिहारी के पात्र में खा-पी नहीं सकता। अपने पात्र में लेकर या हाथ में लेकर आहार कर सकता है। पारिहारिक भिक्षु की सामान्य मर्यादा यह है कि वह पहले अपने पात्र में स्वयं के योग्य भिक्षा लाकर फिर स्थविर के पात्र में स्थविर के योग्य भिक्षा लाता है अथवा पहले स्थविर योग्य आहार लाकर फिर अपने लिए आहार लाता है। किसी कारणवश यदि वह एक ही पात्र में साथ में आहार लाए तो स्थविर के खाने के पश्चात् वह स्वयं खाता है। इन तीनों स्थितियों के निम्न कारण हो सकते हैं - * अशिव आदि के कारण अन्य साधुओं को अन्यत्र भेज दिया हो। * स्थविर और परिहारी दो ही रह गए हों। * जंघाबल की क्षीणता के कारण स्थविर भिक्षाटन में असमर्थ हो गए हों। * अपरिहारी तप के कारण खिन्न हो। * द्रव्य दुर्लभ हो। * सब घरों में भिक्षा का समय एक ही हो। * समय की कमी हो। * पानी आदि की अल्पता हो तो पारिहारिक और अपारिहारिक दोनों एक साथ भोजन कर सकते हैं। परिहार तप प्रायश्चित्त के विकल्प ___ दो साधर्मिक एक साथ विहार कर रहे हों, उस समय उनके साथ संघ सहित आचार्य न हों, वैसी स्थिति में यदि एक मुनि अकृत्य स्थान का सेवन करके आलोचना करे तो वह परिहारतप स्वीकार करता है और दूसरा साधर्मिक अनुपारिहारिक के रूप में उसकी सेवा करता है। कल्पस्थित की भूमिका भी वही निभाता है। उसमें भी यदि आलोचक गीतार्थ है तो परिहार तप दिया जाता है अन्यथा अगीतार्थ को शुद्ध तप दिया जाता है। पारिहारिक की संघ-सेवा यदि पारिहारिक सूत्रार्थ विशारद तथा लब्धि सम्पन्न है तो उसे संघ के इन कारणों से अन्य गच्छों में भेजा जा सकता है * कोई नास्तिकवादी व्यक्ति राजा के समक्ष वाद करने की इच्छा व्यक्त करे। १.व्यसू 2/29,30 व्यभा.१३५२-५६। २.व्यसू 2/1 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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