________________ 360 जीतकल्प सभाष्य 13. दिशा 14. एककुल 15. एकद्रव्य-इन कारणों से मुनि लघुस्वक मृषा' बोलता है। (इन सब द्वारों की व्याख्या आगे की गाथाओं में है।) 884. एक साधु ने दूसरे साधु से कहा-'क्या तुम दिन में नींद लेते हो?' उसने उत्तर दिया-'मैं नींद नहीं ले रहा हूं।' इस प्रकार प्रथम बार अपलाप करने पर लघुमास, दूसरी बार अपलाप करने पर गुरुमास, तीसरी बार किसी दूसरे साधु को दिखाया फिर भी अपलाप करने पर चतुर्लघु तथा अनेक साधुओं के कहने पर भी स्वीकार न करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 885. इस प्रकार बार-बार अपलाप करने पर स्वपद-पाराञ्चित तक प्रायश्चित्त बढ़ता चला जाता है। प्रस्तुत प्रसंग में जिस मृषावाद में जहां-जहां लघुमास या गुरुमास है, वहां सूक्ष्म मृषावाद है और जहां चतुर्लघुक आदि प्रायश्चित्त वाले स्थान हैं, वहां बादर मृषावाद है। 886. वर्षा में साधु को जाते देख किसी अन्य साधु ने पूछा-'तुम वर्षा में क्यों जा रहे हो?' वह बोलामैं वासंतरे वर्षा में नहीं जा रहा हूं। पुनः जाने पर पूछा तो वह बोला-'ये तो वर्षा की बूंदे हैं।' साधु ने उपाश्रय में आकर कहा-'साधुओं! वहां जाओ, ब्राह्मण भोजन कर रहे हैं।' साधु ने पूछा-'ब्राह्मण कहां भोजन कर रहे हैं?' साधु बोला-'सभी अपने-अपने घरों में भोजन कर रहे हैं।' 887. साधु के द्वारा आहार का कहने पर मुनि बोला-'मुझे प्रत्याख्यान है।' तत्क्षण खाते हुए उसे देखकर पूछा कि प्रत्याख्यान में अभी तुमने कैसे खाया? उत्तर देते हुए मुनि बोला-'क्या मैंने प्राणातिपात आदि पांच प्रकार की अविरति का त्याग नहीं किया है?' 888. साधु ने पूछा-'क्या तुम जा रहे हो?' उसने कहा-'नहीं।' तत्क्षण चलने पर साधुओं ने पूछा'निषेध करने पर भी तुम अभी कैसे चले?' उसने उत्तर दिया-'तुम सिद्धान्त को नहीं जानते हो। चलने वाला ही चलता है, उस समय मैं गम्यमान नहीं था।" 889. दो साधु खड़े थे। तीसरे साधु ने पूछा-'आपका संयम-पर्याय कितना है?' एक ने छलपूर्वक उत्तर दिया-'इसका और मेरा दश वर्ष का संयम-पर्याय है।' आगंतुक मुनि ने कहा-'मेरा संयम-पर्याय नौ वर्ष का है। वह उन साधुओं को वंदना करने लगा। तब उसने कहा-'मेरा संयम-पर्याय पांच वर्ष का तथा 1. निशीथ भाष्य में भाव मृषावाद के दो भेद किए हैं -सूक्ष्म और बादर। उसमें भी सूक्ष्म लोकोत्तर मृषावाद के प्रचला आदि 15 स्थान बताए हैं। 2. पांचवी बार अपलाप करने पर षड्लघु, छठी बार षड्गुरु, सातवीं बार छेद, आठवीं बार मूल, नौवीं बार अनवस्थाप्य और दसवीं बार पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।' १.बृभाटी पृ.१६०४। 3. वास धातु शब्द करने में है। वर्षा में शब्द होता है तो जाने का निषेध है', इस प्रकार छल से उत्तर देने पर प्रथम, द्वितीय बार आदि में प्रचला द्वार की भांति प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 4. भगवती के प्रथम शतक में 'चलमाण चलित' आदि का विस्तृत वर्णन है। आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती भाष्य में इसकी विस्तार से व्याख्या की है। 1. भभा-१ पृ. 21-23 /