________________ अनुवाद-जी-९ 359 5. नैषेधिकी' 6. आपृच्छा' 7. प्रतिपृच्छा' 8. छंदना 9. निमंत्रणा' 10. उपसंपदा। अब मैं लघुस्वक मृषावाद आदि के बारे में संक्षेप में कहूंगा। 882, 883. 1. प्रचला-नींद 2. उल्ल-आर्द्र 3. मरुक-ब्राह्मण 4. प्रत्याख्यान 5. गमन 6. पर्याय 7. समुद्देश 8. संखडि-जीमनवार 9. क्षुल्लक 10. पारिहारिक 11. घोटकमुखी 12. अवश्यगमन 1. कार्य से निवृत्त होकर स्थान में प्रवेश करते समय 'नैषेधिकी' शब्द का उच्चारण करना। आवश्यक चूर्णि के अनुसार प्रतिषिद्ध के आसेवन का निवर्तन करने वाली क्रिया नैषेधिकी सामाचारी है। 1. उ 26/5 ; ठाणे कुज्जा निसीहियं। 2. आव 2 पृ.४६ पडिसिद्धनिसेवणनियत्तस्स किरिया निसीहिया। २.कार्य करने से पूर्व गुरु से अनुमति लेना आपच्छना सामाचारी है। शान्त्याचार्य के अनुसार श्वासोच्छवास को छोड़कर स्व और पर से सम्बन्धित प्रत्येक कार्य गुरु से पूछकर करना आपृच्छना सामाचारी है। १.(क) उशांटी प५३५; उच्छ्वासनिःश्वासौ विहाय सर्वकार्येष्वपि स्वपरसम्बन्धिषु गुरवः प्रष्टव्याः.....। (ख) विभा 3464; उस्सासाई पमोत्तुं तदणापुच्छाई पडिसिद्ध। 3. एक कार्य सम्पन्न होने पर दूसरा कार्य करते समय गुरु से पूछना प्रतिप्रच्छना है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार पूर्व निषिद्ध कार्य करने के लिए गुरु की पुनः आज्ञा लेना प्रतिपृच्छा है। शान्त्याचार्य के अनुसार गुरु के द्वारा किसी कार्य में नियुक्त करने पर भी प्रवृत्ति काल में पुनः आज्ञा लेनी चाहिए क्योंकि संभव है गुरु को उस समय कोई दूसरा कार्य कराने की अपेक्षा हो अथवा पूर्व निर्दिष्ट कार्य किसी अन्य साधु के द्वारा सम्पादित हो चुका हो। 1. आवनि 436/31 पुष्वनिसिद्धेण होति पडिपुच्छा। 2. उशांटी प.५३४ ; गुरुनियुक्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव गुरुं, स हि कार्यान्तरमप्यादिशेत् सिद्धं वा तदन्यतः स्यादिति। 4. भिक्षा में प्राप्त अशन आदि द्रव्यों से गुरु आदि को निमंत्रित करना छंदना सामाचारी है, इसे निमंत्रणा भी कहा जाता है। * 5. अशन आदि से अगृहीत दूसरे मुनियों को आहार आदि लाने की भावना निमंत्रणा सामाचारी है। 1. आवनि 436/31; निमंतणा होयगहिएणं। ६.ज्ञान आदि की उपलब्धि हेतु सीमित काल के लिए अन्य गण के आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार करना उपसम्पदा सामाचारी है। 7. लघुस्वक मृषावाद निशीथ भाष्य में विस्तार से व्याख्यायित है। वहां इसके चार भेद किए गए हैं-१. द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल और 4. भाव / वस्त्र-पात्र आदि के बारे में मृषा बोलना द्रव्य विषयक लघुस्वक मृषावाद है, जैसेकिसी साधु का वस्त्र नहीं है फिर भी कहना यह वस्त्र मेरा है अथवा गाय को घोड़ा कहना तथा द्रव्यभूत अर्थात् भावक्रिया से रहित अनुपयुक्त अवस्था में बोलना, यह सब द्रव्य संबंधी लघुस्वक मृषा है। संस्तारक, वसति आदि के बारे में मृषा बोलना क्षेत्रविषयक मृषावचन है। अतीत या अनागत के विषय में मृषा बोलना काल विषयक मृषा है। भाष्यकार ने प्रचला, आर्द्र आदि 15 पदों को भाव लघुस्वक मृषावाद के अन्तर्गत रखा है।' भाष्यकार ने निम्न कारणों से लघुस्वक मृषावचन को विहित माना है-१. लोकापवाद 2. संयमरक्षा 3. म्लेच्छ 4. स्तेन 5. क्षेत्र 6. प्रत्यनीक 7. शैक्ष 8. वाद-विवाद। . १.विस्तार हेतु देखें निभा 875-84 / २.इनकी व्याख्या हेतु देखें निभा 885 चू प.८१।