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________________ 496 जीतकल्प सभाष्य .. दमन नहीं होता अथवा अतिपरिणामक साधु, जो बार-बार उस अतिचार प्रसंग का सेवन करता है। 2284-86. पिण्डविशोधि आदि अनेक प्रकार के उत्तर गुण होते हैं। उनका पुनः पुनः भंग करने वाला, छेद प्रायश्चित्त प्राप्ति जैसा अतिचार सेवन-कर्ता अथवा आदि शब्द से पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त तथा नित्यवासी तथा वैयावृत्त्य करने वाले साधुओं को परितापित करने वाला। (छेद प्रायश्चित्त प्राप्त करता है।) 2287. आदि तीर्थंकर ऋषभ की उत्कृष्ट तपोभूमि एक वर्ष की होती है। मध्यम तीर्थंकरों की आठ मास . होती है। 2288. अंतिम तीर्थंकर की उत्कृष्ट तपोभूमि छह मास पर्यन्त होती है। इस उत्कृष्ट तप-सीमा को अतिक्रान्त करने वाला छेद प्रायश्चित्त को प्राप्त करता है। 2289. जितनी संयम-पर्याय है, उसमें से इन यथोद्दिष्ट तप गर्वित आदि सबको पांच दिन आदि का छेद . प्रायश्चित्त देना चाहिए। 83. जानते हुए पंचेन्द्रिय का घात, दर्प से मैथुन-सेवन तथा शेष मृषावाद आदि में अभीक्ष्ण प्रतिसेवना-इन तीनों का छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2290, 2291. जानबूझकर यदि साधु पंचेन्द्रिय का वध करता है। दर्प से मैथुन सेवन करता है, शेष मृषावाद, अदत्तादान, परिग्रह आदि व्रतों में व्यर्थ ही बार-बार उत्कृष्ट प्रतिसेवना करता है, इन सबमें मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए। 84. तप गर्वित आदि में तथा मूल और उत्तर गुणों में दोष सेवन करने वाला, दर्शनवान्त, चारित्रवान्त, त्यक्तकृत्य-संयम छोड़ने वाला तथा अनवस्थाप्य शैक्ष-इन सबको मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2292. तपगर्वित से लेकर अतिपरिणामक और अतिप्रसंगी-इन सबको यथोपदिष्ट मूल प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 2293. बहुविध मूलगुण और उत्तरगुणों को जो अनेक बार दूषित करता है या उनका भंग करता है, वह व्यतिकर कहलाता है, ऐसे साधु को मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2294. निश्चयनय से चरणघात और आत्मविघात होने पर ज्ञान और दर्शन का वध भी होता है। व्यवहारनय से चारित्र का हनन होने पर शेष दर्शन और ज्ञान की भजना रहती है। 2295. जिसने दर्शन को त्यक्त कर दिया है, उसके चारित्र का त्याग भी जानना चाहिए। लिंग छोड़ने वाले को त्यक्तलिंग जानना चाहिए। 2296. अथवा जिसने सम्पूर्ण संयम का त्याग कर दिया, उसे त्यक्तकृत्य जानना चाहिए। उपस्थापना 1. जीतकल्पचूर्णि की विषमपद व्याख्या में दर्प से मैथुन-सेवन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि इसके सतीत्व को नष्ट करूंगा, इस बुद्धि से कोई साधु स्त्री के साथ प्रतिसेवना करता है तो वह दर्प युक्त मैथुन-सेवन है।' 1. जीचूवि पृ.५४।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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