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________________ अनुवाद-जी-८५-८७ 497 रहित अनुपस्थाप्य शैक्ष'-इन सबके लिए मूल प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 85. अत्यन्तअवसन्न, गृहस्थलिंग, अन्यतीर्थिक लिंग करने वाला, मूलकर्म का सेवन करने वाला, विहित तप अर्थात् अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप प्राप्त कर्ता भिक्षु को भी मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2297. अवसन्न के द्वारा प्रव्रजित अथवा संविग्न से दीक्षित होने पर भी अवसन्न के साथ विहरण करने वाला अत्यन्त अवसन्न कहलाता है। 2298. जो दर्प से गृहस्थलिंग तथा अन्ययूथिक-इन दो परलिंगों को स्वीकार करता है, उसे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। गर्भाधान और गर्भपरिशाटन –ये दोनों मूलकर्म हैं। 2299. भिक्षाशील भिक्षु कहलाता है। विहित तप को उपनय जानना चाहिए। वह दो प्रकार का होता हैअनवस्थाप्य तप और पाराञ्चित तप।। 2300. अतिचार सेवन से जिसको अनवस्थाप्य और पाराञ्चित -इन दोनों प्रकार के प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, ऐसे भिक्षु को मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। 86. छेद प्रायश्चित्त से श्रमण पर्याय का निरवशेष छेद होने पर उसका अवसान अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप में होता है। जो अपने गण में पुनः पुनः मूल प्रायश्चित्ताह अपराध करता है, उसे मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2301. पर्याय का छेद होते-होते जिसका सम्र्पूण पर्याय छिन्न हो जाता है, अनवस्थाप्य तप वहन कर लेने पर उसका अवसान पाराञ्चित प्रायश्चित्त में होता है। 2302. मूल प्रायश्चित्तार्ह प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी जो बार-बार अपने गण में अपराध सेवन करता है, उपर्युक्त सबको मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए। 2303. अनवस्थाप्य दो प्रकार का होता है -आशातना करने वाला और प्रतिसेवी। मैं आशातना अनवस्थाप्य को संक्षेप में इस प्रकार कहूंगा। 2304. तीर्थंकर, संघ, श्रुत, आचार्य, गणधर और महर्धिक की आशातना करने वाले की प्रायश्चित्तमार्गणा इस प्रकार है२३०५. प्रथम और द्वितीय अर्थात् तीर्थंकर और संघ की आंशिक या सर्व आशातना करने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। शेष श्रुत आदि की देश आशातना करने पर चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अब मैं प्रतिसेवना अनवस्थाप्य को कहूंगा। 87. विशेष रूप से बार-बार प्रद्विष्ट चित्त होकर जो चोरी करता है, निरपेक्ष और घोर परिणाम वाला होकर स्वपक्ष पर प्रहार करता है. उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2306. उत्कृष्ट का अर्थ है विशिष्ट / बहुक का अर्थ है-बार-बार। जो अत्यधिक क्रोध आदि करता है, उसे प्रद्विष्टचित्त जानना चाहिए। 1. नवदीक्षित शैक्ष की उपस्थापना होती है अतः उसका यहां उल्लेख है। उसको मूल प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता। 2. गाथा में आए 'च' शब्द से परपक्ष को भी ग्रहण करना चाहिए।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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