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________________ 590 जीतकल्प सभाष्य वस्तु की अपेक्षा है?" आए हुए श्रमण ने कहा "वहां पानी की अपेक्षा है।" अटवी स्थित मुनि प्यास से व्याकुल है। मुनि नंदिषेण बिना पारणा किए पानक की गवेषणा हेतु उपाश्रय से निकला। देव ने पानक को अनेषणीय कर दिया। दूसरे घर जाने पर भी उसको प्रासुक और एषणीय पानक नहीं मिला। तीसरी बार मुनि को शुद्ध पानी की प्राप्ति हुई। अनुकम्पा के साथ नंदिषेण त्वरित गति से अटवी की ओर प्रस्थित हुआ। उसे अटवी में साधु दिखाई नहीं दिया। उसने तीव्र स्वर से आवाज लगाई। देव ने अतिसार रोग युक्त मल लिप्त साधु की विकुर्वणा की। ग्लान मुनि ने कठोर शब्दों में नंदिषेण को उपालम्भ देते हुए कहा "हे मंदभाग्य! तुम साधुओं के उपकारी के रूप में प्रसिद्ध हो लेकिन मेरी इस अवस्था को सुनकर भी तुम्हारा आहार के प्रति इतना लोभ है? तुमने इतना विलम्ब क्यों किया?" बिना किसी प्रतिक्रिया के ग्लान साधु के कठोर वचनों को अमृत की भांति मानते हुए नंदिषेण ने / मुनि के चरणों में प्रणिपात करके क्षमा मांगी फिर मल से लिप्त मुनि के शरीर को साफ किया। नंदिषेण ने ग्लान मुनि को कहा "मुनिवर! अगले गांव में चलकर चिकित्सा की व्यवस्था करेंगे, जिससे आप शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएंगे।" ग्लान साधु बोला-"मैं चलने में असमर्थ हूं।" नंदिषेण ने विनम्रता से कहा-“आप मेरी पीठ पर बैठ जाएं।" मुनि नंदिषेणं की पीठ पर चढ़ गया। चलते-चलते साधु ने नंदिषेण की पीठ पर अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त मल का विसर्जन कर दिया और देवशक्ति से अपने शरीर को भारी बना लिया। मुनि ने कठोर शब्दों में कहा "शीघ्र चलने से मेरे पूरे शरीर में दर्द हो गया।" मुनि पग-पग पर बिना कारण उस पर गुस्सा करता रहा लेकिन नंदिषेण मुनि पूर्णत: उपशान्त रहा। ____ नंदिषेण मुनि ने न कठोर वचनों पर ध्यान दिया और न ही असह्य दुर्गन्ध से उसका मन विचलित . हुआ। उस दुर्गन्ध को चंदन की भांति मानते हुए साधु को हुई असाता के लिए मिथ्या दृष्कृत किया। चलते समय नंदिषेण के मन में एक ही चिन्तन था कि मैं किसी भी प्रकार से मुनि के मन में समाधि उत्पन्न कर सकुँ / ग्लान मुनि अनेकविध प्रयत्नों से भी नंदिषेण के मन को क्षुब्ध नहीं कर सका। अंत में ग्लान मुनि अपने मूल दिव्य स्वरूप में प्रकट हुआ और मुनि की प्रशंसा करके चला गया। दूसरा मुनि भी मूल स्वरूप में प्रकट हुआ। उसने गुरु के समक्ष आलोचना करके नंदिषेण मुनि की धन्यता एवं एषणा के प्रति जागरूकता का अनुमोदन किया। 1. जीभा 826-46, आव 2 पृ.९४, आवश्यक चूर्णि में एषणा समिति के अन्तर्गत निम्न कथा का और उल्लेख मिलता है। शोध विद्यार्थियों की सुविधा हेतु उस कथा का अनुवाद भी यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। एक बार पांच साधु दीर्घ अटवी के मार्ग से विहार कर रहे थे। रास्ते में वे भूख-प्यास के परीषह से क्लान्त हो गए। अटवी को अतिक्रान्त करके वे वैताली ग्राम में पहुंचे। वहां उन्होंने शुद्ध पानक की एषणा की लेकिन वहां के लोगों ने अपने घर के पानक को अनेषणीय कर दिया। मुनियों को एषणीय पानक नहीं मिला। पांचों मुनि पानी के अभाव में दिवंगत हो गए लेकिन उन्होंने एषणा समिति में दोष नहीं लगाया। (आव 2 पृ. 94, 95) .
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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