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________________ कथाएं : परि-२ 615 पत्नी का नाम यशोभद्रा था। एक दिन उसे देखकर पुंडरीक उस पर आसक्त हो गया लेकिन वह उसे नहीं चाहती थी। राजा पुंडरीक ने युवराज कंडरीक को मार दिया। पति की मृत्यु के पश्चात् यशोभद्रा एक सार्थ के साथ वहां से पलायन कर गयी। अधुनोपपन्न गर्भवती रानी श्रावस्ती नगरी पहुंची। श्रावस्ती नगरी में अजितसेन आचार्य थे। वहां महत्तरिका का नाम कीर्तिमती था। वह उस महत्तरिका के पास वैसे ही प्रव्रजित हो गयी, जैसे रानी पद्मावती। कालान्तर में प्रसव के बाद भी उसने अपने पुत्र को नहीं छोड़ा। उस नवजात बालक का नाम खुड्डुककुमार रखा गया। क्रमशः वह यौवन को प्राप्त हुआ। उसने सोचा कि मैं दीक्षा लेने में समर्थ नहीं हूं अतः उसने माता साध्वी से जाने की आज्ञा मांगी। उसने उसे अनेकविध समझाया पर वह नहीं माना। साध्वी ने कहा—'मेरे कहने से तुम बारह वर्ष तक और इंतजार करो। उसने माता साध्वी की बात स्वीकार कर ली।' बारह वर्ष पूर्ण होने पर उसने जाने की आज्ञा मांगी। साध्वी ने कहा- 'मैं महत्तरिका साध्वी से पूछकर तुम्हें आज्ञा दूंगी।' उसने भी बारह वर्ष की अवधि मांगी। महत्तरिका की आज्ञा से वह बारह वर्ष तक वहां रहा फिर आचार्य की आज्ञा से बारह वर्ष रहा फिर उपाध्याय की इच्छा से बारह वर्ष तक रहा। इतने वर्ष बीतने पर भी वह प्रव्रजित होने के लिए तैयार नहीं हुआ। सबने उसे जाने की आज्ञा दे दी। जाते हए साध्वी माता ने उसे शिक्षा देते हए कहा 'तुम ऐसे-वैसे स्थान पर मत जाना। तुम्हारे बड़े पिता राजा पुंडरीक है।' यह तुम्हारे पिता के नाम की मुद्रिका तथा कंबलरत्न है, तुम इन्हें अपने साथ ले जाओ।" वह साकेत नगर पहुंचा। वहां राजा की यानशाला में यह सोचकर ठहरा कि कल राजा से मिलूंगा। आभ्यन्तर परिषद् में उसने नाटक देखा। वह नर्तकी पूरी रात नाचने के बाद प्रभातकाल में निद्राधीन होने लगी। नर्तकी की मुखिया ने सोचा–परिषद् संतुष्ट हो गयी है, उससे बहुत उपहार पाना है।' यदि यह प्रमाद करेगी तो हमारा तिरस्कार होगा। अन्यथा बहुत धन की प्राप्ति हो सकेगी। उसने गीत गाते हुए कहा'पूरी रात्रि तुमने अच्छा गाया और अच्छा नृत्य किया, अब रात्रि के अंत में प्रमाद मत करो।' इसी बीच उस खुड्डक ने अपना कम्बलरत्न नर्तकी की ओर फेंक दिया। युवराज यशोभद्र ने कुंडल, श्रीकान्ता सार्थवाही ने हार, जयसंधि मंत्री ने कंगन, कर्णपाल महावत ने अंकुश फेंक दिया। ये सब चीजें लाख मूल्य वाली थीं। राजा ने कहा—'नर्तकी से संतुष्ट होकर व्यक्ति जो कुछ भी दे, वह सब लिखा जाए। यदि ज्ञात रहेगा तो राजा उससे संतुष्ट होगा अन्यथा दंड मिलेगा।' सब व्यक्तियों के उपहार लिख लिए गए। प्रातः उन सब व्यक्तियों को बुलाया गया। राजा ने उनसे पूछा-'खुड्डुककुमार! तुमने नर्तकी को रत्नकम्बल क्यों दिया?' उसने पितृमारक राजा के बारे में पूरी बात बताई। साथ ही यह कहा कि संयमपालन करने में मैं स्वयं को समर्थ नहीं समझ रहा था अतः तुम्हारे पास राज्य की अभिलाषा से आया हूं। राजा पुंडरीक ने कहा—'मैं तुम्हें राज्य दूंगा।' खुड्डक ने कहा—'अब मेरे लिए राज्य व्यर्थ है क्योंकि अब स्वप्नान्त-जीवन का सान्ध्यकाल चल रहा है, कभी भी मर सकता हूं। राज्य लेने से मेरा पूर्वकृत संयम भी नष्ट हो जाएगा। युवराज ने बहुमूल्य कुंडल देने का कारण बताते हुए कहा—'मैं आपको मारना चाहता था क्योंकि मेरे मन में चिंतन था कि वृद्ध होने पर भी आप मुझे राज्य नहीं दे रहे हैं।' राजा ने अपने पुत्र को राज्य
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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