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________________ 616 जीतकल्प सभाष्य देना चाहा लेकिन उसने इंकार कर दिया। सार्थवाह की पत्नी ने हार देने का कारण बताते हुए कहा—'मेरे पति को परदेश गए हुए बारह वर्ष हो गए। मैं किसी अन्य के साथ जाना चाहती थी।' मंत्री ने कंगन देने का कारण बताते हुए कहा कि मैं अन्य राजा के साथ मिलकर आपके साथ विद्रोह करना चाहता था। महावत ने कहा-"प्रत्यन्त राजा ने मुझे हाथी लाने को कहा अथवा राजा को मारने की बात कही।" उन सबकी बात सुनकर राजा ने वैसा करने को कहा लेकिन सबने अपनी अनिच्छा व्यक्त की। खुडककुमार वापिस जाकर प्रव्रजित हो गया और सभी ने अपना-अपना लोभ छोड़ दिया। 58. हस्तालम्ब : वणिग्द्वय कथा उज्जयिनी नगरी में अवसन्न आचार्य रहते थे, वे निमित्त शास्त्र के ज्ञाता थे। उनके दो वणिक् मित्र थे। वे आचार्य से पूछकर व्यापार करते थे कि अभी उपकरणों को खरीदें या बेचें? इस प्रकार व्यापार करते हुए वे ऐश्वर्य सम्पन्न हो गए। आचार्य का एक भानजा था, वह भोगों में आसक्त था। एक दिन आचार्य के पास आकर उसने कुछ मांग की। आचार्य ने क्षुल्लक शिष्य के साथ उसे व्यापारी मित्र के पास भेजा और कहलवाया कि इसे एक हजार रुपये दे दो। आचार्य के कथनानुसार उसने वहां जाकर रुपयों की मांग की। एक व्यापारी ने कहा "क्या पक्षी रुपये पैदा करते हैं? मेरे पास इतने रुपए नहीं हैं। मैं तुमको केवल 20 रुपए दूंगा।" उसने रुपये नहीं लिए और आचार्य के पास जाकर सारी स्थिति का निवेदन किया। तब आचार्य ने उसे दूसरे वणिक् के पास भेजा। उसने वहां जाकर भी आचार्य के कथनानुसार रुपयों की मांग की। व्यापारी ने टोकरी में बहुत सारी नौलियां दिखाई और कहा...'इनमें तुमको जितने रुपयों की इच्छा है, उतने ग्रहण कर लो।' दूसरे वर्ष दोनों व्यापारियों ने आचार्य से व्यापार के सम्बन्ध में पूछा कि इस वर्ष हम क्या खरीदें? आचार्य ने प्रथम वणिक् को कहा—'तुम्हारे घर में जितना धन है, उससे तुम कपास, घी, गुड़ आदि खरीदकर घर के अंदर रख लो।' दूसरा वणिक् जिसके पास धन कम था, उसे कहा "तुम बहुत सा तृण, काष्ठ, धान्य आदि खरीदकर नगर के बाहर अग्नि से रहित स्थान पर छिपाकर रख दो।" उस वर्ष अनावृष्टि हुई अतः अग्नि का प्रकोप हो गया। अग्नि के कारण सारा नगर जल गया। प्रथम वणिक् की सारी कपास आदि वस्तुएं जलकर भस्म हो गईं। दूसरे वणिक् की सारी वस्तुएं सुरक्षित रह गईं। उसने तृण, काष्ठ, धान्य आदि अधिक कीमत पर बेच दिए। उसको लाखों रुपयों की कमाई हो गई। तब प्रथम वणिक् ने आकर आचार्य को कहा'आपके निमित्त में इतना विसंवाद कैसे हुआ?' आचार्य ने प्रत्युत्तर दिया-क्या शकुनि निमित्त पैदा करती है?' यह सुनकर व्यापारी को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने आचार्य से अपनी त्रुटि के लिए क्षमायाचना की। आचार्य की अनुकम्पा से वह पुनः ऐश्वर्य सम्पन्न हो गया। १.जीभा 2364, आव 2 पृ. 191, १९२,हाटी 2 पृ. 141, 142 / 2. जीभा 2396-2405, बृभा 5114, टी पृ. 1362, 1363 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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