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________________ अनुवाद-जी-४६-५० 445 1728. मुखपोत्ति, पात्रकेशरिका, पात्रस्थापना तथा गोच्छक-ये चार जघन्य उपधि हैं। अब मैं मध्यम उपधि के बारे मैं कहूंगा। 1729. पटलक, रजस्त्राण, पात्रबंध, चोलपट्ट, मात्रक, रजोहरण-ये छह मध्यम उपधि हैं। 1730. प्रच्छादकत्रिक, पतद्ग्रह-ये चार प्रकार की उत्कृष्ट उपधि हैं। ओघ' उपधि संक्षेप में तीन प्रकार की है। 1731. औपग्रहिक उपधि तीन प्रकार की होती है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। यह सारा वर्णन कल्प अध्ययन (बृहत्कल्पभाष्य तथा पंचकल्पभाष्य) की भांति कहना चाहिए। 1732. सूत्र (जीसू 46) में आए 'विच्युत' शब्द का अर्थ है-गिरना। जघन्य आदि उपधि के कहीं गिरने के बाद पुनः मिलने पर प्रमाद जन्य शोधि होती है। वह निर्विकृतिक आदि इस प्रकार है। 1733. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट उपधि में प्रमाद होने पर क्रमशः निर्विगय, पुरिमार्ध और एकासन प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है तथा सब उपधियों में प्रमाद होने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1734. तीनों प्रकार की उपधि की विस्मृति होने पर या प्रतिलेखना विस्मृत होने पर उसकी शोधि क्रमशः इस प्रकार होती है-निर्विगय, पुरिमार्थ, एकासन तथा सर्व प्रकार की उपधि की प्रतिलेखना विस्मृत होने पर आयम्बिल से शोधि होती है। 1735. जघन्य आदि तीनों प्रकार की उपधि की प्रतिलेखना विस्मृत होने से, आचार्य को निवेदन न करने पर उसकी शोधि क्रमशः निर्विगय, पुरिमार्ध और एकासन से होती है तथा सर्व उपधि विस्मृत होने से, आचार्य को निवेदन न करने पर आयम्बिल प्रायश्चित्त से शोधि होती है। 47. त्रिविध उपधि खोने पर, धोने पर, प्राप्त उपधि आचार्य को निवेदन न करने पर, गुरु को दिए बिना उपधि का उपभोग करने पर, बिना आज्ञा उपधि को दूसरे साधु को देने पर क्रमशः एकासन, * आयम्बिल और उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सर्व उपधि खोने आदि प्रमाद पर बेले प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1736. जघन्य उपधि खोने पर उसकी शोधि हेतु एकासन, मध्यम उपधि खोने पर आयम्बिल तथा उत्कृष्ट उपधि खोने पर उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1737. सर्व उपधि खोने पर उसकी शोधि बेले के तप से जाननी चाहिए। अब मैं जघन्य आदि उपधि के धोने पर होने वाले प्रायश्चित्त को कहूंगा। 1738. जघन्य उपधि के धोने पर एकासन, मध्यम उपधि धोने पर आयम्बिल, उत्कृष्ट उपधि धोने पर उपवास तथा सर्व उपधि धोने पर बेले के तप से शोधि होती है। 1739. त्रिविध उपधि प्राप्त होने पर जो आचार्य को निवेदन नहीं करता, उसको जघन्य उपधि के लिए 1. प्रतिदिन काम में आने वाली तथा सदा पास में रहने वाली ओघ उपधि कहलाती है। 2. प्रयोजन विशेष में ग्रहण करके उपयोग में आने वाली औपग्रहिक उपधि कहलाती है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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