________________ 446 जीतकल्प सभाष्य . एकासन, मध्यम उपधि के लिए आयम्बिल, उत्कृष्ट उपधि के लिए उपवास तथा सर्व उपधि के लिए बेले के प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1740. गुरु को दिए बिना जघन्य उपधि का उपभोग करने पर एकासन, मध्यम उपधि का परिभोग करने पर आयम्बिल, उत्कृष्ट उपधि का परिभोग करने पर उपवास तथा सर्व उपधि का परिभोग करने पर बेले के तप से शोधि होती है। 1741. गुरु की आज्ञा के बिना जघन्य आदि उपधि किसी अन्य साधु को देने पर उसकी शोधि जीत व्यवहार से एकासन से लेकर बेले पर्यन्त तप से होती है। 48. मुखवस्त्र के स्खलित होने पर निर्विगय तथा रजोहरण के स्खलित होने पर उपवास प्रायश्चित्त से शोधि होती है। मखवस्त्र के खोने या नष्ट होने पर उपवास तथा रजोहरण के खोने या नष्ट होने पर जीत व्यवहार से बेले के तप द्वारा शोधि होती है। 1742. मुखवस्त्र के स्खलित होने पर उसकी शोधि के लिए निर्विगय प्रायश्चित्त देना चाहिए। रजोहरण के स्खलित होने पर उपवास प्रायश्चित्त से शोधि होती है। 1743. प्रमाद से मुखवस्त्र खोने या नष्ट होने पर उपवास तथा रजोहरण के खोने या नष्ट होने पर प्रमादी साधु की जीतव्यवहार के द्वारा बेले के तप से शोधि होती है। 49. कालातिक्रान्त और मार्गातिक्रान्त आहार रहने पर निर्विगय, उसका परिभोग करने पर उपवास : तथा अविधिपूर्वक आहार-परिष्ठापन करने पर पुरिमार्ध प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1744. विकथा आदि प्रमाद से कालातिक्रान्त आहार रखने पर उसकी शोधि निर्विगय से तथा कालातिक्रान्त आहार का परिभोग करने पर उसकी शोधि उपवास तप से होती है। 1745. इसी प्रकार मार्गातिक्रान्त आहार का परिभोग न करने पर भी उसकी शोधि निर्विगय से तथा परिभोग करने पर उपवास से होती है। उस आहार का अविधिपूर्वक परिष्ठापन करने पर पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। 50. प्राणी का असंवरण तथा भूमित्रिक' का प्रतिलेखन न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त से शोधि होती है। चतर्विध आहार का संवरण न करने पर. नवकारसी आदि प्रत्याख्यान ग्रहण न करने पर अथवा प्रत्याख्यान का भंग करने पर पुरिमार्ध प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1746. प्राणी का असंवरण करने पर साधु की शोधि निर्विगय तप से होती है। भूमि त्रिक की शोधि मैं संक्षेप में इस प्रकार कहूंगा। 1747. प्रथम भूमि का नाम है-उच्चारभूमि, दूसरी का नाम प्रस्रवणभूमि तथा तीसरी का नाम कालभूमि है। इनकी प्रतिलेखना न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1. चूर्णिकार के अनुसार तीनों में से एक की भी प्रतिलेखना न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। १.जीचू पृ. 18; भूमितिगं ति-उच्चार-पासवण-कालभूमि। एगतर-अपडिलेहणाए वि निव्विईयं।