________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 183 स्वयं ही करता है लेकिन यदि किसी कारणवश पाराञ्चित तप को वहन करते हुए उसके रोग हो जाए तो उसकी पूर्णतः देखभाल तथा चिकित्सा की जाती है। साधुओं के अभाव में आचार्य स्वयं भक्तपान लेकर आते हैं तथा उद्वर्तन-परावर्तन आदि वैयावृत्त्य करते हैं। जो आचार्य ग्लानत्व की स्थिति में उसकी उपेक्षा करता है तो उसे चतुर्गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यदि ग्लानत्व आदि कारण से आचार्य स्वयं नहीं जा सकें, अत्यधिक उष्णकाल हो, शारीरिक दौर्बल्य हो अथवा कोई संघीय कार्य उपस्थित हो गया हो तो आचार्य उपाध्याय को, उनके अभाव में योग्य गीतार्थ को वहां भेजते हैं। वह वहां जाकर आचार्य के न आने का कारण प्रकट करता है तथा उसकी शारीरिक स्थिति की पृच्छा करता है। पाराञ्चित तप वहन कर्ता द्वारा संघीय सेवा पाराञ्चित तप वहन करने वाला यदि वादी, क्षीरास्रव लब्धि युक्त अथवा विद्यातिशय से युक्त हो तो संघीय सेवा का प्रयोजन उपस्थित होने पर आचार्य उसको कहते हैं कि संघ के ऊपर आपदा आई है, तुम इस कार्य को सम्पन्न करने में कुशल हो। यदि किसी कारणवश आचार्य उसकी शक्ति से परिचित न हों तो वह स्वयं आचार्य को निवेदन करता है कि संघ के इस कार्य को मैं भलीभांति सम्पन्न कर सकता हूं। वह बड़ा कार्य भी मेरे द्वारा लघु हो जाएगा। राजा के द्वारा संघ में उपस्थित बाधा के ये कारण हो सकते है * वाद-पराजय से राजा कुपित हो गया हो। * चैत्य अथवा चैत्य द्रव्य उसके द्वारा बंधक हों। .. राजा द्वारा साध्वी आदि का अपहरण हुआ हो। * संघ को देश निकाला दिया हो। . बृहत्कल्पभाष्य में राजा द्वारा प्रद्विष्ट होने पर चार प्रकार की आपदाओं का उल्लेख है• देश निकाला देना। * * भक्तपान देने का निषेध करना। .. * उपकरणों का हरण कर लेना। * मार डालना या चारित्र का भेद करना। 1. जीभा 2559, 2560 / 2. बृभा 5037 टी पृ. 1344 / / 3. जीभा 2562, 2563 / 4. जीभा 2564-66 / 5. जीभा 2573, 2574 / ६.बृभा 3121 /