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________________ 182 जीतकल्प सभाष्य निग्रह करने में समर्थ, प्रवचन के सारभूत अर्थ का ज्ञाता, निर्वृहित करने पर तिल तुष मात्र भी अशुभ नहीं सोचने वाला पाराञ्चित तप के लिए निर्वृहण के योग्य होता है। इन गुणों से रहित साधु को पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। आचार्य द्वारा पाराञ्चित तप का निर्वहन यदि आचार्य को पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो वह कुछ समय के लिए अन्य साधु को गण का भार सौंपकर फिर अन्य गण में जाकर प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना करके पाराञ्चित प्रायश्चित्त स्वीकार करते हैं। इस संदर्भ में बृहत्कल्पभाष्य में कुछ मतभेद है। उसके अनुसार गण निर्गमन रूप तप पाराञ्चित प्रायश्चित्त स्वीकार करने वाला नियमतः आचार्य ही होता है। आचार्य को अपने गण में तप पाराञ्चित स्वीकार न करने के कारणों का वहां विशद वर्णन है। अपने गण में पाराञ्चित तप वहन करने से अगीतार्थ साधुओं के मन में यह विश्वास हो जाता है कि आचार्य ने अवश्य कोई बड़ा अकृत्य सेवन किया है। इससे उनके मन में आचार्य के प्रति जो भय, संकोच और सम्मान होता है, वह समाप्त हो जाता है। वे उनकी आज्ञा का उल्लंघन भी कर सकते हैं। स्वगण पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रहता। दूसरे गण में तप पाराञ्चित स्वीकार करने से इन दोषों की संभावना नहीं रहती, अर्हत् की आज्ञा-अनुपालन में स्थिरता रहती है और आत्मा में पाप के प्रति भय रहता है अत: आचार्य एक योजन दूर अन्य गण में पाराञ्चित तप स्वीकार करते हैं। क्षेत्र से वे जिनकल्प के समान चर्या का वहन करते हैं। अलेपकृद् आहार ग्रहण करते हैं। तृतीय पौरुषी में भिक्षा करते हैं तथा बारह वर्ष तक एकाकी रूप से ध्यान-स्वाध्याय में लीन रहते हैं।' पाराञ्चित प्रायश्चित्त में पांच आभवद् व्यवहार से उसका संघ के साधुओं के साथ सम्बन्ध नहीं रहता। पाराञ्चित तप-वहनकर्ता की देखभाल क्षेत्र पाराञ्चित तप वहन करने वाले की देखभाल हेतु आचार्य प्रतिदिन वहां जाते हैं। आचार्य वहां जाने से पहले शिष्यों को सूत्रार्थ की वाचना देते हैं फिर पाराञ्चित तप वहनकर्ता की वर्तमान की शारीरिक स्थिति की अवगति हेतु क्षेत्र के बाहर जाते हैं। प्रायश्चित्त वहन कर्ता को आश्वस्त करके आचार्य पुनः अपने गच्छ में आ जाते हैं। यदि आचार्य शारीरिक दृष्टि से असमर्थ हों अथवा सूत्र और अर्थ की वाचना दिए बिना प्रात:काल ही चले गए हों तो एक संघाटक पीछे से उनके लिए भक्तपान लेकर आता है।" सामान्यतया पाराञ्चित तप वहन कर्ता स्वस्थ हो तो भक्तपान, प्रतिलेखन, उद्वर्तन आदि कार्य 1. जीभा 2549-51, बृभा 5029-30 / 2. जीभा 2552, बृभा 5031 / / 3. जीभा 2555 / 4. बृभा 5033 टी पृ. 1343 / 5. बृभा 5034, 5035 टी पृ. 1344 / ६.व्यभा 650 / 7. जीभा 2556-58
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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