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________________ 184 जीतकल्प सभाष्य ____ पाराञ्चित तप वहन कर्ता शब्द और तर्कशास्त्र में निपुण तथा अनेक विद्वत् सभाओं में अपराजित होता है। वह राजभवन में जाता है। द्वारपाल द्वारा रोके जाने पर वह कहता है-- 'हे द्वारपालरूपिन्! तुम जाकर राजरूपी को कहो कि एक संयतरूपी आपसे मिलना चाहता है। द्वारपाल राजा की आज्ञा प्राप्त करके उसे राजा के पास ले जाता है। राजा साधु को वंदना करके उसे सुखपूर्वक आसन में बिठाता है। राजा साधु से प्रतिहाररूपी, राजरूपी और संयतरूपी का अर्थ पूछता है। पाराञ्चिक मुनि इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहता है कि जैसे इन्द्र आदि के आत्मरक्षक होते हैं, वैसा आपका यह द्वारपाल नहीं है इसलिए मैंने प्रतिहाररूपी- द्वारपाल के समान शब्द का प्रयोग किया। तुम भी चक्रवर्ती के समान राजा नहीं हो। चक्रवर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं लेकिन न्याय और शौर्य में चक्रवर्ती के प्रतिरूप हो अतः मैंने राजरूपी शब्द का प्रयोग किया है। वास्तविक साधु अठारह हजार शीलाङ्गों को धारण करते हैं लेकिन मैं अतिचार सेवन के कारण श्रमणप्रतिरूपी हूं। अपनी बात को जारी रखते हुए वह पाराञ्चित तप वहन कर्ता साधु कहता है कि अभी मैं संघ से निष्कासित हूं अतः श्रमणों के क्षेत्र में नहीं रह सकता। वर्तमान में मैं प्रमाद से होने वाले अतिचार की तप से विशोधि कर रहा हूं। उसकी धर्मकथा और कथन शैली से आकृष्ट होकर राजा उससे राजभवन में आने का प्रयोजन पूछता है। मुनि उसे स्पष्ट शब्दों में आने का कारण बताता है। उसकी बात को सुनकर राजा कहता है कि तुम्हारे कथन से प्रभावित होकर मैं अपने पूर्व प्रतिबंधों को वापिस लेता हूं। राजा संघ को आमंत्रित करके उसकी पूजा करता है। इस प्रकार जिस प्रयोजन को संघ नहीं कर पाता, उस कार्य को वह अचिन्त्य प्रभाव युक्त पाराञ्चिक मुनि पूरा कर देता है। उस समय राजा संघ से प्रार्थना करता है कि मैं तुम्हारा यह प्रयोजन सिद्ध करता हूं, तुम पाराञ्चित तप वहन करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर दो। राजा के कहने पर अथवा स्वयं संघ संतुष्ट होकर उस मुनि को प्रायश्चित्त से मुक्त कर सकता है। पाराञ्चित प्रायश्चित्त की समयावधि में अल्पीकरण जब प्रायश्चित्त वहन कर्ता मुनि राजा को प्रसन्न करके संघ पर आई किसी विपत्ति को दूर करता है, उस समय काल की दृष्टि से उसका प्रायश्चित्त तीन रूपों वाला हो सकता है• आदि अर्थात् प्रायश्चित्त प्रारम्भ ही हुआ हो। * मध्य- प्रायश्चित्त का मध्यवर्ती काल हो। * अवसान- प्रायश्चित्त का अंतिम समय चल रहा हो। 1. जीभा 2567-77, बृभा 5046-53 / 2. बृभा 5054 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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