SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 185 संघ उस समय देश, देशदेश अथवा सारा प्रायश्चित्त भी वहन करवा सकता है अथवा उसे सारे प्रायश्चित्त से मुक्त भी कर सकता है। कुल प्रायश्चित्त का छठा भाग देश कहलाता है। आशातना पाराञ्चित में छह मास का छठा भाग एक मास तथा बारह वर्ष का दो मास होता है। एक वर्षीय जघन्य प्रतिसेवना प्रायश्चित्त का छठा भाग दो माह तथा बारह वर्ष का छठा भाग चौबीस मास होता है, यह देश प्रायश्चित्त वहन का काल है। देशदेश प्रायश्चित्त के वहन काल में आशातना पाराञ्चित में छह मास का दसवां भाग अठारह दिन तथा वर्ष का दशवां भाग छत्तीस दिन होते हैं। प्रतिसेवना पाराञ्चित के जघन्य एक वर्ष का दसवां भाग छत्तीस दिन तथा उत्कृष्ट बारह वर्षों का दसवां भाग एक वर्ष बहत्तर दिन होते हैं। यह देशदेश प्रायश्चित्त का काल है। यदि प्रायश्चित्त वहन कर्ता अगीतार्थ या अपरिणामक है तो उसके समक्ष नवविध व्यवहार का विस्तार करके लघुस्वक प्रायश्चित्त दिया जाता है। पाराञ्चित प्रायश्चित्त के स्थान ___स्थानांग सूत्र के अनुसार पांच स्थानों में श्रमण पाराञ्चित प्रायश्चित्त का भागी होता है१. कुल में भेद डालने वाला। 2. गण में भेद डालने वाला। 3. कुल और गण के सदस्यों की हिंसा करने वाला। 4. छिद्रान्वेषी। 5. बार-बार प्रश्नायतनों का प्रयोग करने वाला। ... बौद्ध-परम्परा में पाराजिक प्रायश्चित्त के चार अपराध-स्थान हैं१. संघ में रहकर मैथुन सेवन करना। 2. बिना दी हुई वस्तु ग्रहण करना। 3. मनुष्य की हत्या करना। 4. बिना जाने अलौकिक बातों का दावा करना। .. वहां भिक्षुणी को भी आठ कारणों से पाराजिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1. जीभा 2578-87 / प्रश्नविद्या का प्रयोग। रस के द्वारा वस्त्र, कांच, अंगुष्ठ २.स्थाटी प. 286; प्रश्न-अंगुष्ठकुड्यप्रश्नादयः सावधा- आदि में देवता को बुलाकर अनेकविध प्रश्नों का हल नुष्ठानपृच्छा वा त एवायतनान्यसंयमस्य प्रश्नायतनानि करना। प्रयोक्ता भवति-प्रश्नायतन का अर्थ है-अंगुष्ठ आदि ३.स्था 5/47 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy