________________ 186 जीतकल्प सभाष्य अंतिम दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद प्रथम संहनन और चतुर्दशपूर्वी-इन दोनों का एक साथ विच्छेद हुआ। उनके विच्छेद होने पर अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-ये दोनों प्रायश्चित्त भी विच्छिन्न हो गए। अनवस्थाप्य और पाराञ्चित के लिंग, क्षेत्र, काल और तप-इन चार भेदों में तप अनवस्थाप्य और तप पाराञ्चित का चौदहपूर्वी के साथ विच्छेद हो गया, शेष लिंग पाराञ्चित आदि प्रायश्चित्त तीर्थ की अवस्थिति तक रहते हैं। और भाष्य ग्रंथों के आधार पर दस प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त वर्णन किया है। इस संदर्भ में तुलनात्मक दृष्टि से और भी अन्वेषण करने की अपेक्षा है। पाठ-संपादन की प्रक्रिया शोध कार्यों में पाठ-संपादन का कार्य महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अत्यन्त जटिल, नीरस और श्रमसाध्य है। पाठ-निर्धारण का अर्थ इतना ही नहीं है कि प्राचीन प्रतियों के विभिन्न पाठों में एक पाठ को मुख्य मानकर अन्य पाठों को पाठान्तर के रूप में दे दिया जाए। पाठ-निर्धारण में अनेक दृष्टियों से सूक्ष्मता से विचार किया जाता है। पाश्चात्त्य विद्वानों ने पाठानुसंधान के कार्य को चार भागों में विभक्त किया है१. सामग्री-संकलन 2. पाठ-चयन 3. पाठ-सुधार 4. उच्चतर आलोचना। प्रस्तुत ग्रंथ के संपादन में चारों बातों का ध्यान रखा गया है। पाठ-संपादन में हमारे समक्ष निम्न आधार मुख्य रहे हैं * जीतकल्प एवं उसके भाष्य की हस्तलिखित प्रतियां, जिनमें एक ताड़पत्रीय प्रति भी सम्मिलित है। * जीतकल्प का व्याख्या साहित्य (जीतकल्प चूर्णि आदि) * जीतकल्पभाष्य की अनेक गाथाएं, जो पिण्डनियुक्ति, व्यवहारभाष्य, निशीथभाष्य और बृहत्कल्पभाष्य में मिलती हैं। पाठ-सम्पादन एवं पाठ-चयन में प्रायः प्रतियों के पाठ को प्रमुखता दी है लेकिन किसी एक प्रति को ही पाठ-चयन का आधार नहीं बनाया है और न ही बहुमत के आधार पर पाठ का निश्चय किया है। अर्थ-मीमांसा का औचित्य, उस गाथा पर अन्य ग्रंथों की टीका और पौर्वापर्य के आधार पर जो पाठ संगत लगा, उसे मूल पाठ के अन्तर्गत रखा है। पाठ-सम्पादन के कुछ मुख्य बिन्दुओं को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है• कहीं-कहीं किसी प्रति में कोई शब्द, चरण या गाथा नहीं है, उसका पादटिप्पण में x के चिह्न से निर्देश कर दिया है। जहां पाठान्तर एक से अधिक शब्दों पर या एक चरण में है, उसे '' चिह्न से दर्शाया है। 1. जीसू 102, जीभा 2588, 2589 /