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________________ अनुवाद-जी-४०-४६ 443 40. ओघ और विभाग औद्देशिक, उपकरण पूति, स्थापना, प्रकट प्रादुष्करण, लोकोत्तर परिवर्त, प्रामित्य तथा परभावक्रीत की शोधि पुरिमार्ध तप से होती है। 1700-02. ओघ औद्देशिक, विभाग औद्देशिक में उद्देश के चारों भेद, उपकरणपूति, चिरस्थापित प्रकट प्रादुष्करण, लोकोत्तर प्रामित्य तथा परिवर्त, मंख आदि द्वारा परभावक्रीत-इन सब दोषों की शुद्धि पुरिमार्ध तप से होती है। अब मैं स्वग्राम आहृत आदि के प्रायश्चित्त को कहूंगा। 41. स्वग्राम आहृत, दर्दर उभिन्न, जघन्य मालापहृत, प्रथम अध्यवतर (यावदर्थिक), सूक्ष्म चिकित्सा, संस्तव (वचन सम्बन्धी), त्रिक प्रक्षित तथा निषिद्ध दायक-(इन दोषों से युक्त भिक्षा लेने पर पुरिमार्ध तप से शोधि होती है।) 1703-08. स्वग्राम आहृत, गांठ सहित दर्दरक उदिभन्न, जघन्य मालापहृत, अध्यवतर का अर्थ है और अधिक डालना। प्रथम यावदर्थिक अध्यवतर, सूक्ष्म चिकित्सा, वचन सम्बन्धी संस्तव, प्रक्षित त्रिक-कर्दम युक्त पृथ्वीकाय म्रक्षित, उदकार्द्र-अप्काय म्रक्षित, उक्कुट्ठ-(चावल का आटा) परित्त वनस्पति काय म्रक्षित, निषिद्ध बाल, वृद्ध, मत्त, उन्मत्त, कम्पमान शरीर, ज्वरित-ये सब निषिद्ध दायक कहलाते हैं। यथोद्दिष्ट इन सभी परग्राम आहृत से लेकर ज्वरित तक दोषों से युक्त भिक्षा लेने पर प्रत्येक की शोधि परिमार्ध तप से होती है। 42. प्रत्येक वनस्पति पर परम्पर स्थापित, परम्पर पिहित, मिश्र प्रत्येक वनस्पति पर अनन्तर निक्षिप्त आदि तथा शंकित आहार ग्रहण करने पर पुरिमार्ध प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1709-12. सचित्त प्रत्येक वनस्पतिकाय पर परम्पर निक्षिप्त, पिहित और संहत होने पर, सचित्त प्रत्येक मिश्र वनस्पति पर अनन्तर निक्षिप्त होने पर, आदि शब्द ग्रहण से मिश्र वनस्पति के अनन्तर पिहित और संहत होने पर तथा शंकित दोष युक्त भिक्षा ग्रहण करने पर यथोद्दिष्ट इन प्रत्येक दोषों की शोधि का प्रायश्चित्त पुरिमार्ध तप होता है। 43. इत्वरिक स्थापित, सूक्ष्म प्राभृतिका, सस्निग्ध अप्काय प्रक्षित, सस्निग्ध पृथ्वीकाय म्रक्षित तथा मिश्र परम्पर स्थापित आदि प्रत्येक दोष में निर्विगय प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1713-16. इत्वरिक स्थापित भक्त, सूक्ष्म प्राभृतिका, सस्निग्ध अप्काय म्रक्षित, सरजस्क पृथ्वीकाय प्रक्षित, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, प्रत्येक वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय आदि पर मिश्र परम्पर निक्षिप्त-इन सब दोषों में प्रत्येक का प्रायश्चित्त लघुपणग (निर्विगय) है। अनंतकाय वनस्पति पर मिश्र परम्पर निक्षिप्त रखने पर गुरुपणग, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय है। 1717. द्वितीय विकल्प के अनुसार अनंतकाय वनस्पति के अनन्तर निक्षिप्त में गुरुपणग प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय है। परम्पर निक्षिप्त में भी यही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1718. दूसरे विकल्प में प्रत्येक वनस्पति के अनन्तर निक्षिप्त में लघु पणग प्रायश्चित्त में निर्विगय तप ' की प्राप्ति होती है। परम्पर निक्षिप्त में भी यही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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