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________________ 442 जीतकल्प सभाष्य पर निक्षिप्त, अनंतकाय से पिहित, अनंतकाय मिश्र से संहृत तथा आदि ग्रहण से अपरिणत अनंतकाय का ग्रहण करना चाहिए। इन सबकी शोधि उपवास प्रायश्चित्त से होती है। 1682, 1683. रस के लिए संयोग करना, राग सहित स-अंगार भोजन करना, वर्तमान और भविष द्विविध निमित्त-कथन-यथोद्दिष्ट निमित्त पर्यन्त प्रत्येक दोष की शोधि उपवास प्रायश्चित्त से होती है। 37. कर्मउद्देश, मिश्रजात, धात्री आदि पिण्ड, प्रकाशकरण आदि, पुरःकर्म, पश्चात्कर्म, गर्हित द्रव्य से प्रक्षित, संसक्त द्रव्य से लिप्त हाथ और पात्र से युक्त भिक्षा ग्रहण करने पर-इन सबकी शोधि आयम्बिल तप से होती है। 1684-91. प्रथम कर्म उद्देश, प्रथम यावदर्थिक मिश्रजात, पंचविध धात्रीपिण्ड-क्षीरधात्री से अंकधात्री पर्यन्त, आदिग्रहण से दूतीपिण्ड, अतीत सम्बन्धी निमित्त, आजीवपिण्ड, वनीपकपिण्ड; बादर-चिकित्सा, क्रोधपिण्ड, मानपिण्ड, स्त्री सम्बन्धी वचनसंस्तव, विद्यापिण्ड, मंत्रपिण्ड, चूर्णपिण्ड, योगपिण्ड, प्रकाशकरण, प्रादुष्करण, द्रव्यआत्मक्रीत, द्रव्यपरक्रीत, भावआत्मक्रीत, लौकिक प्रामित्य, लौकिक परिवर्त, निरपाय परग्राम अभ्याहत, सचित्त उद्भिन्न पिहित, कपाट उद्भिन्न, उत्कृष्ट मालापहत, आच्छेद्य, अनिसृष्टअननुज्ञात पुर:कर्म, पश्चात्कर्म, गर्हित द्रव्य से मेक्षित एवं संसक्त द्रव्य से लिप्त हाथ और पात्र-इनमें कर्म उद्देश आदि से लेकर लिप्त दोष पर्यन्त प्रत्येक की शोधि आयम्बिल तप से होती है। 38. अतिरोहित प्रत्येक वनस्पति से निक्षिप्त, पिहित और संहृत तथा प्रत्येक मिश्र वनस्पति से निक्षिप्त, पिहित और संहृत, अतिप्रमाण, धूमदोष, आहार करने के कारण एवं कारण का वर्जनइन सबकी शोधि में आयम्बिल तप विहित है। 1692-95. अतिर का अर्थ है-निरन्तर। प्रत्येक वनस्पति पर निक्षिप्त, परित्त वनस्पति से पिहित तथा संहत, मिश्र प्रत्येक वनस्पति से निक्षिप्त, संहृत तथा पिहित, सूत्र में आदि शब्द के ग्रहण से प्रत्येक वनस्पति से लिप्त, प्रत्येक वनस्पति पर छर्दित, अति प्रमाण आहार, सधूम दोष युक्त आहार, कारण होने या न होने पर आहार। शिष्य प्रश्न करता है कि कारण विवर्ज शब्द का प्रयोग क्यों किया गया? इसके बारे में मैं कहूंगा। बिना प्रयोजन आहार करता है अथवा जो कारण उपस्थित होने पर आहार नहीं करता, वह विवर्ज कहलाता है। इन सब दोषों की शोधि आयम्बिल तप से होती है। 39. अध्यवतर, कृत औद्देशिक, पूतिदोष युक्त, मायापिण्ड, अनन्तकाय वनस्पति से परम्पर निक्षिप्त, मिश्र अनंतकाय से परम्पर एवं अनंतर निक्षिप्त आदि-इन सभी दोषों की शोधि एकासन तप से होती है। 1696-99. अध्यवतर में पाषंड अध्यवतर तथा साधु अध्यवतर, कृत औद्देशिक के यावदर्थिक आदि चार भेद-पूतियुक्त आहार, मायापिण्ड, सचित्त अनंतकाय पर परम्पर निक्षिप्त, आदि शब्द के ग्रहण से पिहित और संहृत, मिश्र अनंत वनस्पति से परम्पर पिहित तथा अतिरोहित, मिश्र अनंतकाय से पिहित-इन यथोद्दिष्ट दोषों की शोधि एकासन तप से होती है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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