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________________ अनुवाद-जी-३५-३९ 441 1664. आहार-परित्याग के छह कारण ये हैं-१. आतंक-रोग-निवारण हेतु 2. उपसर्ग-तितिक्षा-- उपसर्ग-सहन करने के लिए, 3. ब्रह्मचर्य की गुप्तियों की परिपालना के लिए, 4. प्राणिदया के लिए, 5. तपस्या के निमित्त तथा 6. शरीर-व्यवच्छेद के लिए। 1665. ज्वर आदि आतंक उत्पन्न होने पर आहार नहीं करना चाहिए। कहा गया है कि सहसा उत्पन्न व्याधि का तेले आदि की तपस्या से निवारण करना चाहिए। 1666, 1667. राजा तथा स्वजन आदि का उपसर्ग होने पर उसे सहन करने के लिए आहार नहीं करना चाहिए। विषयों के द्वारा बाधित होने पर जिनेश्वर भगवान् ने कहा है कि साधु को आहार नहीं करना चाहिए। लौकिक ग्रंथ (गीता) में भी कहा गया है कि निराहार व्यक्ति के विषय समाप्त हो जाते हैं। 1668. इसलिए ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए साधु को आहार नहीं करना चाहिए। वर्षाकाल में वर्षा और ओस आदि में प्राणियों की दया के लिए आहार नहीं करना चाहिए। 1669. उपवास से लेकर पाण्मासिक तप के लिए आहार नहीं करना चाहिए तथा संयम-भार निस्तीर्ण होने पर शरीर को छोड़ने की इच्छा से आहार नहीं करना चाहिए। 1670. अब यह शरीर संयम को वहन करने में असमर्थ है, इस कृत्कृत्य शरीर रूपी उपकरण को अब छोड़ना है। इस चिन्तन से वह आहार नहीं करता, आहार का सर्वथा विच्छेद कर देता है। 1671. उद्गम के 16 दोष, उत्पादना के 16 दोष, एषणा के 10 दोष तथा ग्रासैषणा के संयोजना आदि 5 दोष-ये एषणा के 47 दोष होते हैं। 1672. आहार से सम्बन्धित कुल मिलाकर सैंतालीस दोष होते हैं। इनसे अशुद्ध पिंड को ग्रहण करने से संयमी साधु के चारित्र का उपघात होता है। 1673. तीर्थंकरों ने साधु के लिए इन दोषों से रहित आहार की विधि कही है। मुनि इनका पालन इस रूप में करे जिससे धर्म और आवश्यक (प्रतिक्रमण ) आदि योगों की हानि न हो। 1674. उद्गम आदि से लेकर कारण पर्यन्त यह विस्तार है। अब मैं इन दोषों के लक्षण, दोष-प्रसंग (प्राप्ति) तथा प्रायश्चित्त-दान आदि के बारे में क्रमश: कहूंगा। - 1675-79. अब मैं गाथा (जीसू गा. 35) का अक्षरार्थ कहूंगा। विभाग औद्देशिक के कर्म उद्देश को छोड़कर चरम त्रिक-कर्म समुद्देश, कर्म आदेश तथा कर्म समादेश, पाषंडमिश्रजात, साधुमिश्रजात, आधाकर्म, बादर उत्प्वष्कण प्राभृतिका, बादर अवष्वष्कण प्राभृतिका, परग्राम से सप्रत्यपाय आहृत आहार, जिसमें आत्मविराधना हो, लोभ के द्वारा गवेषित लोभपिण्ड, औद्देशिक से लेकर लोभपिण्ड पर्यन्त प्रत्येक की शोधि उपवास तप से होती है। 36. अतिरोहित अनंतकाय वनस्पति पर निक्षिप्त और पिहित तथा अनंतकाय मिश्र पर संहत, संयोजना, स-अंगार तथा द्विविध निमित्त-इन सब दोषों की शोधि उपवास प्रायश्चित्त से होती है। 1680, 1681. अतिर का अर्थ है निरन्तर। अनंतकाय से वनस्पति गृहीत है। मालपूआ आदि अनंतकाय
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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