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________________ 422 जीतकल्प सभाष्य 1465. श्रावक कुलपति को अपने घर ले गए। बिना इच्छा के बलपूर्वक उनके पैर यह कहते हुए धो दिए कि लोग इस परम्परा को नहीं जानते कि विनयपूर्वक दिया गया दान महान् फल वाला होता है। 1466. भिक्षा लेकर जब वह जाने लगा तो लेप न होने के कारण नदी में डूबने लगा। आचार्य समित ने . जब नदी को पार किया तो नदी के दोनों किनारे मिल गए। यह देखकर पांच सौ तापस विस्मित हो गए। कुलपति सहित सभी तापस आर्य समित के पास प्रव्रजित हो गए। वह समूह ब्रह्मशाखा' के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 1467. इस प्रकार इन योगों का प्रयोग करके जो पिण्ड की एषणा करता है, वह मुनि के लिए कल्प्य नहीं है। अब मैं मूलकर्म के बारे में कहूंगा। 1468. मूलकर्म' दो प्रकार का होता है-गर्भाधान और गर्भ-परिशाटन-दोनों प्रकार के मूलकर्म के प्रयोग में मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1469. गर्भाधान में अधिकरण, प्रतिबन्ध तथा दोषारोपण आदि दोष होते हैं। गर्भ-परिशाटन में प्राणवध, दोषारोपण, शत्रुता तथा लोक में अपकीर्ति आदि दोष होते हैं। 1470. मूलकर्म से उत्पादित पिण्ड साधु के लिए कल्प्य नहीं होता। उत्पादना के दोषों का वर्णन किया। गवेषणा के दोषों का वर्णन सम्पन्न हो गया। 1471. इस प्रकार उद्गम-उत्पादना के दोषों से विशुद्ध तथा ग्रहण-विशोधि से विशुद्ध गवेषित पिंड का ग्रहण होता है। 1472. उद्गम के दोष गृहस्थ से, उत्पादना के दोष साधु से तथा ग्रहणैषणा के दोष दोनों-गृहस्थ और साधु से समुत्थ होते हैं। 1473. शंकित तथा भावतः अपरिणत-ग्रहणैषणा के ये दो दोष साधु-समुत्थित होते हैं। शेष आठ दोष नियमतः गृहस्थों से उत्पन्न जानने चाहिए। 1. कृष्णा और वेणा नदी के संगमस्थल पर ब्रह्मद्वीप नामक द्वीप था। वहां कुलपति सहित पांच सौ तापस रहते थे। वे आचार्य वज्र के मामा आर्य समित के पास दीक्षित हुए। ब्रह्मद्वीप में रहने के कारण उनकी प्रसिद्धि ब्रह्मद्वीपक शाखा के रूप में हो गई। पज्जोसवणाकप्प' से भी इस बात की सिद्धि होती है. कि आर्य समित से ब्रह्मद्वीपक शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रह्मदीपक शाखा का उल्लेख नंदी सत्र में भी मिलता है. जिसमें प्रवजित होने वाले सिंह मुनि उत्तम वाचक पद से विभूषित हुए। 1. निचू 3 पृ. 426; ततो य बंभद्दीवा साहा संवुत्ता। 2. पज्जो 215; थेरेहिंतोणं अज्जसमिएहितो, एत्थ णं बंभद्दीविया साहा निग्गया। 3. नंदी 1/32 / २.पिण्डनियुक्ति के अनुसार किसी के कौमार्य को क्षत करना, इसके विपरीत किसी दूसरे में योनि का निवेशन करना अर्थात् अक्षत करके उसे भोग भोगने योग्य बना देना मूलकर्म है।' १.पिनि 231/5 ; अवि य कुमारखयं, जोणी विवरिट्ठा निवेसणं वावि। गम्मपए पायं वा, जो कुव्वति मूलकम्मं तु॥ 3. मूलकर्म के विस्तार हेतु देखें पिनि 231/5-232 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 101-03 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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