________________ अनुवाद-जी-३५ 423 1474. ग्रहणैषणा चार प्रकार की होती है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य ग्रहणैषणा में वानरयूथ का दृष्टान्त विस्तार से कहना चाहिए।' 1475. द्रव्य ग्रहणैषणा के बारे में वर्णन कर दिया, अब मैं भाव ग्रहणैषणा के बारे में कहूंगा। यह शंकित आदि दश पदों की शुद्धि से शुद्ध होता है। 1476. एषणा के दस दोष होते हैं१. शंकित ६.दायक 2. म्रक्षित 7. उन्मिश्र ३.निक्षिप्त 8. अपरिणत . 4. पिहित 9. लिप्त 5. संहृत 10. छर्दित। 1477-79. शंकित के चार विकल्प हैं * ग्रहण में शंकित- भोजन में शंकित। * ग्रहण में शंकित - भोजन में नहीं। * भोजन में शंकित - ग्रहण में नहीं। * न ग्रहण में शंकित और न भोजन में शंकित। शंका कैसे होती है? (यह पूछने पर आचार्य कहते हैं-) भिक्षा के लिए प्रविष्ट मुनि प्रचुर भिक्षा-सामग्री को देखकर भी लज्जावश पूछताछ करने में समर्थ नहीं होता। वह शंकित होकर भिक्षा ग्रहण करता है और शंकित अवस्था में ही उसका उपभोग करता है। (यह प्रथम विकल्प है।) .1480. मुनि ने शंकित हृदय से भिक्षा ग्रहण की। दूसरे मुनि ने गुरु के समक्ष आलोचना करते हुए यह कहा कि यह भोजन प्रकरणवश किसी अतिथि आदि के लिए बनाया हुआ था अथवा यह प्रहेणक-किसी अन्य घर से आई हुई भोजन सामग्री थी। यह सुनकर मुनि ने निःशंकित होकर उस भिक्षा का उपभोग किया। (यह चतुर्भगी का दूसरा विकल्प है।) 1481. तृतीय भंग में मुनि आहार को निःशंक रूप में ग्रहण करता है लेकिन अन्य साधु को आचार्य के समक्ष आलोचना के समय वैसी ही वस्तु को देखकर उसके मन में शंका हो जाती है कि अमुक घर में मैंने जैसी भिक्षा ग्रहण की थी, वैसी ही इस मुनि के पास है अतः यह दोषदुष्ट होनी चाहिए। 1482. इन साधुओं ने इस प्रकार की महती भिक्षा प्राप्त की है तो मुझे भी क्यों नहीं प्राप्त हो सकती, इस प्रकार निःशंकित होकर साधु भिक्षा ग्रहण करता है और नि:शंकित होकर ही उसका भोग करता है (यह चतुभंगी का चौथा भंग है)। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५१। २.शंकित आदि दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि भूमिका, पृ.१०४।